pankul

pankul

ये तो देखें

कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

मैं कुत्ताः चमचागीरी कोई हमसे सीखे




यह बहुत पेचीदा प्रश्न हो सकता है कि इंसान प्राचीन चमचा है या कुत्ता। इस प्रश्न का हल भी मुर्गी पहले पैदा हुई या अंडा सरीखा है। हम तो इतना जानते हैं पीढ़ियों से चमचागीरी करते-करते हम कुत्ते परिपक्व हो गये हैं। इसी चमचागीरी का नतीजा है हम शताब्दियों से इन्सान के साथ हैं।
चमचागीरी के कई नुस्खे हैं। सबसे पहले मालिक के आस-पास रहने की कोशिश करो। अगर मालिक के पास दो-तीन कुत्ते (चमचे) हैं तो वहां कम्पटीशन बढ़ जाता है। सुबह उठते ही मालिक के चरणों में लोट लगा दो। मालिक अगर हाथ इधर-उधर उठाये तो उसी दिशा में देखकर भौंकने लगो। अपने साथी कुत्ते को मालिक के आस-पास आने भी मत दो। जब खाना दिया जाए तो कोशिश करो मालिक की आंख के सामने न खाओ। कम से कम मालिक जब तक खाना न खाये, रोटी को मुंह तक न लगाओ। हां, अगर मालिक रोटी का टुकड़ा आपकी ओर फेंक दे तो उसे एक कोने में ले जाकर ऐसे खाओ जैसे बहुत बड़ा उपहार मिल गया हो। दरवाजे पर किसी अपरिचित के आते ही भौंकने लगो। जब मालिक डांट दे तो पूंछ हिलाते हुए उसके पास आ जाओ।
कुत्तों के चमचागीरी के यह गुण बिल्कुल इंसान सरीखे हैं। जिन लोगों को चमचागीरी का शौक होता है वह अपने मालिक (नेता, अफसर) के सामने जाते ही दण्डवत हो जाते हैं। अक्सर बड़े नेताओं और लोगों के एक से ज्यादा चमचे होते हैं। यहां वही चमचा सफल है जो सुबह मालिक के सोकर उठने से पहले ही दरवाजे पर जाकर खड़ा हो जाता है। दरवाजा खुला नहीं कि मालिक को प्रणाम किया। मालिकिन से सामान की लिस्ट ली और मालिक के पांव दबाये। घर में खींसे निपोरते-निपोरते बैठे रहें लेकिन खाना नहीं खायें। मालिक जो बात कहे उसकी हां में हां मिलाये। अगर मालिक कहे, मैं कल चांद पर जाऊंगा तो पहले ही कह दें, अरे आप तो जाने कब के चांद पर हो आते। आपने ही पहले दूसरों को मौका दिया। मालिक कहे मैं महान तो कहो अरे आप से बढ़कर कोई महान हो ही नहीं सकता। जब मालिक कहीं किसी जुगाड़ का काम करा दे तो कहो, आपने तो मेरी सात पुस्तैं सुधार दीं। मालिक कहे, भौंको तो काटने को दौड़ पड़ो। मालिक ने डांटा तो चुपचाप दुम हिलाते रहो।
ऐसे चमचों के सामने अक्सर दिक्कत नहीं आतीं। चमचे वाकई प्रेरणा के स्रोत हैं। चमचों से धैर्य रखने की प्रेरणा प्राप्त होती है। जब मालिक का खानदान सुविधायें पा लेगा तो चमचों को उसका लाभ मिलेगा। दिक्कत सबसे ज्यादा मोहल्ला चमचों के सामने आती है। हम कुत्ते तो अक्सर इस दिक्कत को झेल जाते हैं। एक मोहल्ले में रहते-रहते हम पालतू न होते हुए भी पालतू सरीखे हो जाते हैं। जिसके घर में गये वहीं रोटी का टुकड़ा मिल गया। दिन भर मजे से पेट भर जाता है। शाम को सभी के घरों के बाहर भौंक आये और अपना काम पूरा।
इंसानी मोहल्ला चमचों के आगे बहुत दिक्कत आती हैं। एक घर से निकलकर दूसरे घर में गये तो पड़ोसी के यहां नम्बर कट। एक मालिकिन का काम किया तो दूसरी का मुहं फूल जाएगा। इसके बाद भी तमाम मोहल्ला चमचे सफल हैं। सफल ही नहीं पूरी तरह हिट हैं। ऐसे महान चमचे हमेशा आदरणीय होते हैं। यही वो चमचे होते हैं जो भविष्य में प्रगति करते हैं। रिस्क लेकर आगे बढ़ते हैं। पहले मालिक के यहां जी हजूरी करते हैं फिर मालिक से बराबरी करने लगते हैं। ऐसे ही महान चमचे अपने भी चमचे पालते हैं। यही इनकी सफलता का राज है। ऊपर से चमचागीरी का मौका मिला और नीचे अपने चमचों को लगा दिया काम पर। ये महान चमचे मालिक के सामने पेट पर हाथ रखकर ऐसे बैठते हैं जैसे महीनों से रोटी नसीब न हुई हो पर ऐसा होता नहीं। यह सिर्फ भूखे रहने का स्टाइल मारते हैं। इसी लिये कहा जाता है हर सफल मालिक कभी न कभी मोहल्ला चमचा रहा होता है।
हम कुत्तों के लिये ऐसे मोहल्ला चमचे सदैव भगवान स्वरूप रहेंगे। यह वो कठिन काम है जो हम कुत्ते भी नहीं कर सकते। हमारे यहां जो मोहल्ला कुत्ते हैं उन्हें सिर्फ रोटियां मिलती हैं और इंसानी मोहल्ला चमचों को दूध मलाई और बोटियां खाने को मिलती हैं। बोटियां भी इतनी कि खुद खायें और अपने चमचों को बांट दें।
पंकुल

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

नित्य- निरंतर

मानवीय सोच और संवेदनाओं को समर्पित दो लघु कविताएं लिख रहा हूं। लिखने के लिये बार-बार निरंतरता बनाने का प्रयास करता हूं लेकिन हर बार कोई न कोई कारण गैप बना देता है।
यों ही

मानव क्यों उठा रहा अपनी अर्थी
स्व कंधों पर।
इस शहर से उस शहर तक
अन्जाने खामोश पथ पर
कब तक फिरेगा
यों ही बेसहारा।
तेरे अपने इस जीवन पर
हक है तेरा पूरा फिर भी
क्यों उठा रहा अपनी अर्थी।
जीवन के कुछ मूल्य
वो समय बहुमूल्य
जो तूने खोया
यों ही बेकाम।
ठहर कुछ पा सकता है अब भी
सोच क्या बन गया है मानव
क्यों उठा रहा अपनी अर्थी,
स्व कंधों पर।।


नित्य- निरंतर


यह मेरे स्वप्न
मेरी धरोहर
इनका टूटना-जुड़ना
नित्य-निरंतर
एक विडम्बना है।
कल्पना के आधार पर
विचारों का किला
सदैव हर आहट पर
भरभराकर गिरा
इसका बनकर बिखरना
नित्य-निरंतर
एक विडम्बना है।
आसमां के पंक्षी की तरह
दूर कहीं उड़ चला
पर पलक खुलते ही
जमीन पर आ गिरा
इसका उड़कर गिरना
नित्य-निरंतर
एक विडम्बना है।
पंकुल

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

खंडहर

बहुत दिनों से विवाह समारोहों में व्यस्तता के चलते कुछ लिख नहीं सका। या यों कहें, शादियों में कारगिल सा युद्ध लड़कर ही लुत्फ उठा रहा था। विवाह समारोह भी अब सामान्य नहीं रहे। रिश्तेदारों को बुलाने से लेकर उनको खिलाने तक में बहुत कुछ बदल गया है। एक देहाती शादी में जाने का अवसर मिला जहां पर पत्तल की दावत के लिये कुछ मिनट इंतजार के बाद ही नम्बर आ गया। जिसने शादी में बुलाया था वह हर दो-तीन मिनट बाद ही आकर पूछ जाता एक पूड़ी तो और ले लो। कोई आकर कहता अरे बिल्कुल अभी-अभी कढ़ाई से निकालकर लाया हूं। खाने में व्यंजन कम और प्यार ज्यादा नजर आया। उसके ठीक दूसरे दिन शहर के एक प्रतिष्ठित व्यवसायी के यहां जाने का सौभाग्य हुआ। दरवाजे पर ही मेजबान के दशर्न हुए फिर हम अंदर थे एक समुंदर की तरह लोग आते जा रहे थे। किसको क्या मिला क्या नहीं इस बात से किसी को मतलब नहीं। कौन भूखा गया यह देखने की फुर्सत किसी को नहीं। अधिकांश लोग तो दस-बारह कार्ड गाड़ी में रखकर लाये थे। हर जगह फेरी लगा-लगाकर ही पेट भर गया। लेकिन उन बेचारों का क्या जो सिर्फ एक ही शादी में पेट भरने की जुगाड़ से गये थे। खैर ये तो व्यवस्था का सवाल है। आजकल इन प्रतिष्ठित शादियों में जाने वाले ऐसे लोग ज्यादा होते हैं जिन्हें कई जगह जाना होता है। इस खाने-पीने के बीच एक कविता लिखने का मन कर आया। डरिये नहीं, कविता का खाने पीने से कोई मतलब नहीं है।
खंडहर
वो
निर्जीव खंडहर
जो सहता है प्रकृति का हर बार
अपनी टूटी जर्जर दीवारों के सहारे
जिसके आगोश में दफन है
न जाने कितने युगों का इतिहास
जिसने सहा है
सैकड़ों दुशमनों का प्रहार।
पर यह निर्जीव खंडहर
जस का तस खड़ा रहा
हर युग में
समय का सबसे बड़ा राजदार
मौन हो देखता रहा
दिन- रात का बदलना
मानव का मानव से लड़ना।
यही निर्जीव खंडहर
जैसे अट्ठाहस लगा रहा हो
हमारी मजबूरी पर
और कह रहा हो
कितना मूर्ख है मनुष्य
जो मेरी चाहत में ही मर मिटा।
कभी लगता घूरता मुझे
ये निर्जीव खंडहर।।
पंकज कुलश्रेष्ठ

बुधवार, 5 नवंबर 2008

अपना-अपना कारगिल

दोस्तों बहुत ही विषम परिस्थिति सामने आने वाली है। आओ हम सब मिलकर युद्ध की तैयारी में लग जाएं। जब युद्ध करना ही है तो पहले उसकी ड्रेस का निर्धारण कर लें। सामान्य तौर पर इस युद्ध के लिये लोग सूट का इस्तेमाल करते हैं। जरूरी है कि अपनी-अपनी शादी के सिलाये सूट निकालकर उनपर स्त्री-सिस्त्री करवा लें। एक अदद जूते भी खरीद लें। ठोस और जमाऊ एड़ी वाले जूते को प्राथमिकता दें। अगर सूट नहीं है तो ठीक-ठाक सी जैकेट से भी काम चल सकता है। युद्ध का बिगुल नौ तारीख को बजने जा रहा है। आपको कब इस युद्ध में जाना है इसके लिये घर में रखे कार्ड देख लें। नहीं समझे। अरे दद्दू। शादी में खाने जाओगे तो युद्ध तो करना ही होगा। तुम क्या सोच रहे थे बार्डर पर तुम्हें भेजने का रिस्क लूंगा? कतई नहीं। तुम जाकर कारगिल की लड़ाई लड़ोगे और गोल्ड पाओगे? अरे भाई बीबी को सभी स्टाल का नाश्ता चखा दिया तो समझ लेना वीरता पदक मिल गया।
ध्यान रहे, पुराने समय की कहावत को मत भूल जाना। जिसने की शरम उसके फूटे करम। शादी में चाहे लड़की वाले की ओर से जाओ चाहें लड़के वाले की ओर से अपना टारगेट मत भूल जाना। सबसे पहले खुद पानी की टिकिया की लाइन में लगना और भाभी जी को भल्ले के लिए खड़ा कर देना। लाइन में लगते समय कतई बच्चे और बूढ़े का लिहाज मत कर जाना। यूं खड़े हुए तो बर्तन खाली होने के बाद ही नम्बर आयेगा। अपने सूट की क्रीज की चिन्ता की तो समझ लेना गये काम से। पता नहीं कब कोई भाई, भाभी या माताजी पीछे से आपके सूट पर दही या सौंठ टपका दें।
अपने दास जी इस मामले में बहुत ही एक्सपीरेंस्ड हैं। बिल्कुल अमेरिका की तरह। कोई लाइन नहीं, सब जगह बीटो पावर का इस्तेमाल। भैये सबसे पहले टिकिया वाले के पास पीछे से जाते हैं और रौब से कहते हैं, छोटू मजे में है। कैसा चल रहा है। अब टिकिया वाले को छोटू कहो या बड़को सब चलता है। बेचारा खींसे निपोर देता है और दास जी अचक से दोना उठाकर बढ़ा देते हैं जरा चखइयो तो। कैसा पानी बनाया है तूने। दास जी अपने साथ एक-दो चमचे को ले लेते हैं। कभी भल्ले वाले से पूछते हैं कोई चीछ कम तो नहीं। भल्ले वाला दमक कर बोल देता है सब ठीक है बाऊजी। बस हो गया दासजी का काम। हाथ बढ़ा कर कह देते हैं जरा दिखइयो तो कैसा माल डाल रहा है तू। दास जी एक-एक करके सभी स्टाल का माल चख लेते हैं।
ये दास जी के एक्सपीरेंस का मामला है। आपको तो आमने-सामने का युद्ध ही करना है। कभी इसको झिड़का, अरे क्या तमीज नहीं है भाई। पैंट पर दही गेर दिया। इसी बीचे पीछे से कोई बच्चा निकला नहीं कि पूरी पैंट का कबाड़ा। ऐसे में बड़बड़ाने के अलावा क्या कर सकते हैं। पहले खाने को तो मिले। पिछली बार चचे शादी में गये तो भूखे ही आ गये। एक स्टाल पर गये तो वहां भाभी और चाची जी को ही आगे करते रहे। यूं ही पहले आप-पहले आप कहते-कहते शाम से रात हो गयी और प्लेट साफ की साफ ही रही। बाहर निकले तो लिफाफा थमा दिया लड़की के पिता के हाथ में। उन्होंने भी पूछ लिया, अरे भाई कुछ लिया कि नहीं। बिना लिये मत जाना। अब उन्हें कौन बताये, कुछ हो तो लें।
पिछली बार अपने एक दद्दू भी गाम से पहली बार शहर की शादी में आ गये। अंदर पहुंचे तो सबसे पहले छोरी के पिता को ढूंढने में लग गयी। लड़की के चाचा मिले तो नमस्ते कर दी। एक बार नमस्ते कर आये पर कोई असर नहीं। इसके बाद एक-एक करके दर्जन भर बार नमस्ते कर आये। बार-बार सोच रहे कोई खाने को पूछे। किसी ने उनसे खाने को नहीं पूछी। बेचारे सोच रहे थे कोई एक बार तो कह दे कुछ खा लो दद्दू।
इस युद्द में जो भी अपने दोनों हाथों में दोने लेकर निकलता है वह खुद को राणा प्रताप से कम नहीं समझता। बाहर सबसे पहले दोने बीबी को थमाता है फिर अपना कोट संभलता है। बड़ी मुश्किल से मिला। लो चुन्नू तुम भी चख लो। पता नहीं, अंकल ने कैसा इंतजाम कराया है।
नाश्ते के बाद चुन्नू के पापा खाने की ओर गये और प्लेट में एक-एक करके सब कुछ भर लाते हैं। यही खाने का दस्तूर है। बार-बार लाइन में कौन लगे। कभी-कभी तो ऐसा लगता है मटर पनीर में दही ज्यादा पड़ गया या रसगुल्ला थोड़ा चटपटा है। कभी दाल मीठी सी लगने लगती है तो कभी मिठाई नमकीन। जब लोग सब ओर से निपट लेते हैं फिर ध्यान आती है कि वो शादी में मेहमान है। अपनी घरवाली से कहते हैं सुनो, वो लिफाफा जरा दे आओ फिर चलें। ये युद्ध किसी कारगिल से कम नहीं है। फिर चलो। तैयार हो जाएं।
पंकुल

रविवार, 2 नवंबर 2008

मैं कुत्ता(4)ः तरक्की के लिये टांग खिंचाई जरूरी


ये बात मुझसे बेहतर कौन जानता है कि कुत्ता आखिर कुत्ता ही होता है। हम लोगों को कुत्ता इसीलिये कहा जाता है क्योंकि हमारी कोई औकात नहीं होती। हमारी औकात नहीं होती इसलिये हम दूसरों की औकात को परखने की कोशिश करते हैं। हमारा यही सगुण आज मानव जाति के उत्थान का कारण बनता जा रहा है। सही मायनों में हमने लोगों को दिशा और दशा दिखायी है। समाज के पथ प्रदर्शक हम ही हैं। हम लोगों को कुत्ता खिंचाई जिसे आपके यहां टांग खिंचाई भी कहते हैं का प्रचलन प्राचीन काल से है। इस प्रथा का अनुसरण करने से आप लोग तरक्की कर रहे हैं।
हमारे सामने से रात को कोई भी आदमी ऐसा नहीं निकलता जिसका हम पीछा न करते हों। पैदल से लेकर कार वाले तक का हम अपनी सीमा के बाहर तक पीछा करते हैं। कई बार लोग स्कूटर पर टांग ऊंची करके हमसे बचने का प्रयास करते हैं। बड़े-बड़े धुरंधर रास्ता बदलकर चुपचाप निकल जाते हैं। रात के अंधेरे में लोगों को पता ही नहीं चलता हम कहां से निकलकर उनका पीछा करने लगते हैं। हमारी शिकारी अदा के अच्छे-अच्छे कायल हैं। असली आनंद तो तभी आता है जब लोग मोटर साइकिल और स्कूटरों की स्पीड दुगनी कर देते हैं। तुम्हारी कसम कई लोगों को तो मैंने ही गाड़ी से लुढ़कते देखा है। गाड़ी रुकने के बाद हमारा कोई विवाद नहीं होता। हम यह पीछा सिर्फ इसलिये करते हैं जिससे लोगों को आपनी औकात का पता चल जाए। पीछा करने से हमें आत्मिक सुकून भी मिलता है। अब आप लोग भी इसका अनुसरण करने लगे हो यह अच्छी बात है। सरकारी ठेके से लेकर बड़े-बड़े कामों तक इसी विद्या से काम चल रहा है। नैनो में सपना लेकर आने वालों के लिये आपके दिल में भी हमारी तरह कोई मोह-ममता नहीं है। कोई धुरंधर आये पर टाटा करके जाना ही पड़ेगा। तमाम ऐसे लोग हैं जिनकी ओर से लोगों ने गुजरना ही बंद कर दिया है। आपको हमारी इस विद्या से आर्थिक संतुष्टि होती है। बड़े-बड़े फक्कड़ इस कुत्ता परेड के चक्कर में शानदार गाड़ियों में घूमने लगे। अब हम उनकी गाड़ी का पीछा कर रहे हैं और वो अपने से बड़ी गाड़ियों को खोज रहे हैं।
यह कुत्ता परेड डर पैदा करने के लिए की जाती है। कई बार जाड़ों में हम चुपचाप पेट में सिर छिपाये बैठे रहते हैं और उधर से गुजरने वाले बिना पीछा किये ही टांग उठा लेते हैं। ऐसा नहीं लोगों को यह भी मालूम है कि जो भौंकते हैं वो काटते नहीं फिर भी हमारा डर उन्हें डराता रहता है। आपके यहां भाई लोगों ने भी इसी थ्योरी पर काम करना शुरू कर दिया है। एक बार किसी को चौराहे पर दो थप्पड़ जड़े फिर वह हमेशा वह उन्हीं के नाम की माला जपने लगता है। कुछ कुत्ते रात को चुपचाप एक कोने में पड़े रहते हैं। ऐसे कुत्तों ने पूरे समाज की नाक कटवा दी है। कभी कोई गाड़ी वाला उनकी टांग पर पहिया चढ़ा जाए या कभी कोई बच्चा लात मार जाए वह सिर्फ कूं-कूं कर सकते हैं। ऐसे कुछ मनुष्य भी हैं लेकिन उन्हें कोई पूछ ही नहीं रहा।(क्रमश)
पंकुल

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

बेतुकीः मां लक्ष्मी का सालाना निरीक्षण आज

राम-राम सा। आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। यह पर्व आप सभी के लिये मंगलमय हो। अब कुछ बेतुकी हो जाए।
दास जी के पुत्र को एक्जाम में दीपावली का निबंध लिखने को दिया गया। बालक मन ने इतना अच्छा निबंध लिख दिया कि मास्टर जी प्रसन्न हो गये। बोले बेटा तुझे बी.एड., पीएचडी करने की कोई जरूरत नहीं। महान पिता की महान संतान, तुम तो लोगों को भाग्य विधाता बनोगे। निबंध इस प्रकार था।
दीपावली मैया लक्ष्मी को मनाने का त्यौहार है। मैया लक्ष्मी बहुत दयालु हैं, कृपालु हैं। वह साल में एक दिन वार्षिक निरीक्षण पर निकलती हैं। सालाना निरीक्षण के लिये उन्होंने अमावस की काली रात को चुना है। इस सालाना निरीक्षण के लिये लोग घरों की सफाई करते हैं। जो अमीर हैं वो हर साल हर कमरे में महंगा वाला डिस्टेंपर करवाते हैं और जो गरीब हैं वो चार साल की गारंटी वाला डिस्टेंपर करवाते हैं। उनसे भी ज्यादा गरीब चूने से काम चलाते हैं। गांवों में लोग गाय-भैंस की पॉटी से भी काम चला लेते हैं। इस प्रक्रिया को ठीक वैसे ही समझा जा सकता है जैसे कोई वरिष्ठ अधिकारी सरकारी दफ्तर में सालाना निरीक्षण पर जाता है। इसके लिये अधिकारी कार्यालय को साफ कराते हैं। कमीशन वाले ठेकेदार से आफिस की पुताई करवाते हैं।
रंगाई पुताई के बाद घर के बाहर खूब सारी लाइटें और झालर लगायी जाती हैं। जब से चाइना वालों को दीपावली के बारे में मालूम पड़ा है उन्होंने 25-30 रुपये की झालर बेचकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों की बत्ती गुल कर दी है। ये झालर सामान्य तौर पर सीधे बिजली के खम्भे पर जम्पर डालकर लगायी जाती है। चोरी की बिजली से झालर जलाने का आनन्द ही कुछ और होता है। झालर लगाने के बाद रात को मैया का पूजन किया जाता है। हमारे देश में पुरानी कहावत है, पैसा ही पैसे को खींचता है। इसी लिये लोग मैया के सामने चांदी-सोने के सिक्के रखकर पूजा करते हैं।
दीपावली का महत्व अधिकारी और प्रभावशाली लोगों के लिये विशेष होता है। कई अधिकारी तो साल भर तक आने वाले गिफ्ट का इंतजार करते रहते हैं। जितना बड़ा अधिकारी उतने ज्यादा गिफ्ट। शहरों में अक्सर देखा गया है कि लोग अपने घर में मिठाई का डिब्बा भले ही न ले जाएं पर अधिकारी को खुश जरूर करते हैं। जिस अधिकारी से जैसा काम पड़ता है वैसे ही गिफ्ट उसे दिये जाते हैं। ठेकेदार अपने-अपने विभागों के अफसरों को खुश करने के लिये मिठाई और पटाखे ले जाते हैं। एक बार अफसर खुश तो साल पर बल्ले-बल्ले। इन लोगों को मानना है कि मां लक्ष्मी साल में एक ही दिन के भ्रमण पर निकलती हैं बाकी के 364 दिन तो वह उन्हीं के यहां रहेंगी।
मैया के आने के इंतजार में कुछ लोग अपने घरों के दरवाजे खुले छोड़ देते हैं। इन लोगों के घरों में चोरी हो जाती है तो भी यह समझते हैं कि मैया ने पुराना माल बाहर निकला दिया अब नया भिजवायेगी। यह त्यौहार उन लोगों के लिये बहुत ही बढ़िया है जो जुआ खेलते हैं। मैया ताश के पत्तों से होकर उनके घर का दरवाजा खटखटा देती है।
इस त्यौहार का लाभ उन लोगों को भी है जो किसी न किसी रूप में सरकारी हैं। यही कारण हैं कि अपनी दीपावली मनाने के लिये दूसरों का जेब तराशना जरूरी है। खर्चे बढ़ते हैं तो छापे भी मारने पढ़ते हैं। अफसर को भी घर पर मिठाई चाहिये। उस बेचारे को भी अपने बड़े संतुष्ट करने होते हैं। बिजली वाले चोरी रोकने के लिये बागते हैं। जहां चोरी न हो रही हो वहां जम्पर डालकर चोरी करवाते हैं फिर खुद ही छापा मार देते हैं। इन्हीं लोगों ने कहावत बनायी है चोर से कह चोरी कर और सिपाही से कहो जागते रहे। अक्लमंद लोग साल में एक बार ही इतने गिफ्ट ले लेते हैं कि बाद में जरूरत ही न पड़े क्योंकि दीपावली गिफ्ट भ्रष्टाचार नहीं होता। यह तो सदाचार होता है।पूजा करने के बाद लोग अपने पैसे में खुद आग लगाते हैं और तालियां बजाते हैं। यह काम कालीदास जी से प्रेरणा लेकर किया जाता है। कालीदास जी जिस डाली पर बैठते थे उसी को काटते थे। इस दिन गणेश भगवान की भी पूजा होती है। लोग गणेश जी से कहते हैं कि वह अपने चूहे को समझायें कि वह दूसरे घरों से लक्ष्मी मैया को लेकर आयें।
उपसंहार
इस तरह से साफ है कि दीपावली सभी को खुश करने का दिन होता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियां भी अपनी दीपावली मनाने के लिये गिफ्ट पैक भी बाजार में लाती हैं।
पंकुल

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः दास न रहे उदास

भ्रष्टाचार की मूर्ति दास जी नित्यकर्म के बाद जैसे ही चिलमन से बाहर आये चमचे दहाड़ मारते उनकी तरफ दौड़ पड़े। दास जी ने तनिक प्यार से पूछा, भैये चमचों क्या परेशानी है। दो-तीन-चार नम्बर के काम के धनी चमचे ने मुंह खोला, महाराज महंगाई मार रही है। दास जी ने चुटकी ली, काहे, दीवाली की मिठाई नहीं देने का इरादा है। कहां महंगाई है। सुबह से कुल्ला तक नहीं किया हूं और दो दर्जन से ज्यादा भक्त मिठाई दे गये हैं। एक-एक भक्त ने कितना खर्च किया मालूम है, कम से कम पच्चीस-तीस हजार। अरे भाई कोई हमारे लिए कपड़े लाया तो कोई अपनी चाची को खुश कर गया। तुम इतना महंगाई-महंगाई गिड़गिड़ा रहे हो, अभी चार ठौ ठेके नहीं दिलाये तुम्हें। घर में पैसा नहीं तो ठेके वापस कर दो।
लगता है तुम विपक्ष से जा मिले हो। कोई काम-बाम नहीं अफवाहें फैला रहे हो।
एक दूसरे चमचे ने हिम्मत जुटाई। बोला महाराज आपके लिए महंगाई नहीं है लेकिन अफसरों को भी हमई से दीवाली शुभ करनी है। ठेके मिलने के बाद सामान महंगा हो गया। रेत में रेत मिलाने की भी गुंजाइश नहीं बची है। सीमेंट का कट्टा दिखा कर काम चल रहा है। दास जी ने कहा, चमचे इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं है। सरकार किसकी, हमारी। जांच कौन करेगा हम। किसने कहा तुमसे काम करो। ठेका लो और कमीशन भेंट करो। तुम्हारी दीवाली में रौनक रहे और हमारे बच्चे टापते रहें, यह नाही होगा ना।
दास जी ने मुस्कराते हुए समाधान बताना शुरू किया तो चमचे उनके चारों ओर चुपचाप बैठ गये। दास ने भ्रष्ट वचन देना शुरू किया तो सन्नाटा पसर गया। दास जी ने गंभीर मुद्रा में कहा जिस तरह सूरज पूरब से निकलता है यह सत्य है उसी तरह तुम हमारी दीवाली मनवाओगे यह सत्य है। महंगाई बढ़ी कोई बात नहीं, सामान और कम डालो। और मुसीबत आये तो काम ही मत करो। हम हैं न झेलने को। तुम तो बस नोट छापो और हमें दो।
दीवाली साल में एक बार इसलिये आती है जिससे लोग अपने सुख (गिफ्ट) दूसरों को बांट सकें। मिठाई के नाम पर लीगल रिश्वत ले सकें। भगवान ने हमें सरकारी बनाया है। जो सरकारी होता है उसकी दीपावली तुम जैसे चमचे ही मनवाते हैं। भविष्य में ध्यान रखना हर अधिकारी को उसकी औकात के हिसाब से संतृप्त जरूर करना। तुम जैसे चमचों का जन्म ही हम जैसे लोगों के लिये हुआ है। यह कहकर दास जी कमरे में प्रवेश कर गये और चमचे उनकी दीपावली की तैयारी की वाह-वाह करते हुए उठ कर चले गये।
पंकुल

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

लगे रहो राज भाई

राज भाई, यों ही लगे रहना। किसी से डरने की जरूरत नहीं। आखिर किसकी मजाल जो तुम्हारी बिना बाल की मूंछ टेड़ी कर सके। राजेश खन्ना का गाना नहीं सुना, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। छोड़ो बेकार की बातों में, बीत न जाए रैना। तुम तो पुरानी कहावत के सहारे ही जीना। यानि सुनो सबकी और करो मनकी। अरे भाया तुम्हें कौन महाराष्ट्र के बाहर राजनीति करनी है। जितनी सीटें मिलेंगी, महाराष्ट्र में ही मिलेंगी। कुछ नहीं तो कम से कम दस-पांच हजार वोट तो बढ़ेंगे ही। ये चिन्ता उन्हें करने दो जो राष्ट्रीय दुकान चला रहे हैं। तुम्हारी ठेठ महाराष्ट्री दुकान है वही माल बेचो जो बिके। अब गंजों के शहर में कोई कंघे तो बेचेगा नहीं।
राज भाई, अभी तक तो बाहर के आदमियों को मार-मार कर निकाला है। अब सबसे पहले बाहर की भैंसों को लात मारकर निकाल देना। सभी भैंसों का डीएनए टेस्ट करा लेना। किसी के दादा-परदादा भी यूपी., बिहार के निकल आयें तो डंडे सहित बाहर का रास्ता दिखा देना। अपने ब्लड का भी एक बार टेस्ट तो करा ही डालना। पता नहीं कब रेस्ट आफ इंडिया की गाय-भैंस का दूध पी लिया हो। जाने-अनजाने किसी टाफी, चाकलेट में ही बाहर का दूध अंदर चला गया हो। बड़ी दिक्कत हो जाएगी। एक काम और जरूर करना, जितनी भी परचून की दुकान हैं उनमें रके सामान को भी चेक कर लेना। बाहर का बना हो तो आग लगा डालना। अरे कम से कम यूपी और बिहार की दाल, आटा, चावल, मेवा, मिश्री मत खाना। भैया कन्हैया जी को भी मत याद करना, वह भी बेचारे यूपी के ही थे।
अपने घर की छत, दीवार और ईंटों को खुदवाकर एक बार जरूर देख लेना। कहीं उसमें यूपी, बिहारी या बिलासपुरी मजदूर के पसीने की दुर्गन्ध तो नहीं आ रही। अपने चेलों का भी डीएनए जरूर करा लेना, कहीं उनके मां-बाप तो उत्तर प्रदेश, बिहार के नहीं थे। तुम्हें कमस है पूरे महाराष्ट्र में बाहर की कोई निशानी मत छोड़ना। कभी उस ट्रेन में मत बैठना जो इधर से होकर जाती हो। इतना तो देख ही लेना, कहीं उसका ड्राइवर तो बिहारी नहीं है। प्लेन में बैठो तो आस-पास बिहारी को देखते ही ऊपर से कूद जाना। अबकी जब क्रिकेट टीम का कोई खिलाड़ी रन बनाये तो ताली बजाने से पहले उसका प्रदेश जरूर पता कर लेना। तुम्हें कसम है, राज भाई। भूल से अगर इधर की मिट्टी भी मिल जाए तो उसे इधर ही भिजवा देना। कोई बात नहीं, अगर कुछ दिन जेल में भी रहना पड़े तो कोई बात नहीं, ये सब लोग तो तुम्हारी तरक्की से जलने वाले हैं। बेस्ट आफ लक। जिन्दगी भर एक दड़बे में ही रहना।
पंकुल

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः दोस्त वही जो प्रभावशाली

एक समय की बात है, दास जी अपने सरकारी बंगले के गार्डन में ध्यानस्थ बैठे थे। चारों ओर शांत मुद्रा में चमचे उनके इस रूप को देखकर गार्डन-गार्डन हो रहे थे। चारों ओर चमचों की बढ़ती भीड़ देख दास जी ने आंख खोल दीं। प्रसन्न मुद्रा में बोले, चमचों आज क्या समाचार है। एक चमचा बोला महाराज दोस्त और दुश्मन में क्या फर्क है।
दास जी के माथे पर सिलवटें बढ़ गयीं। गहन विचार के बाद बोले चमचे तुम्हारा सवाल अति उत्तम है। पूर्व में महाभारत के समय भी इसी तरह के प्रश्न के चक्कर में अर्जुन परेशान थे। दास जी के मुख से निकलते शब्दों को सुन चमचे कुछ और नजदीक आ गये। दास जी ने कहा दुनिया में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। जिस हाथ से आप साइकिल को फेंक देते हैं वही हाथ साइकिल चलाता भी है। जिस हाथी से अच्छे-अच्छे डरते हैं वह भी दोस्त हो सकता है। राजेश खन्ना ने कहा था, मिथुन चक्रवर्ती ने कहा था। हाथी मेरा साथी। जब हाथी साथी हो सकता है तो दोस्त ही हुआ। ये अलग बात है जब हाथी को पानी पीना हो तो वह हैण्डपम्प से भी पी सकता है। जिस तालाब में कमल के फूल खिलते हैं उसका पानी खत्म भी कर सकता है। हाथी दयालु भी बहुत होता है। वह कभी कमल के राखी भी बांध देता है।
यही कारण है कि हाथी से तालाब में खिल रहे कमल डरते हैं। उन्हें हाथी की दुश्मनी से डर लगता है। डरता हाथ भी है। साइकिल हाथी से तेज नहीं चल सकती। साइकिल को भी हाथी से डर लगता है। इसलिए सब डरने वाले दोस्त होते हैं। साइकिल को हाथ का सहारा तो कमल को हैण्डपम्प का। हाथी जितना पानी पीयेगा उसका थोड़ा बहुत तो तालाब में हैण्डपम्प से भर ही जाएगा। साइकिल अगर गिरी तो हाथ का सहारा मिल ही जाएगा। लेकिन जब हाथी की सांस फूले, वह बीमार सा हो जाए। उसकी वोटें (सांसे) बंद होने लगें तो वह साइकिल की सवारी भी कर सकता है। हाथी को हाथ घास भी खिला देता है।
अचानक के चमचे के जेहन में सवाल कौंधा। महाराज जब सब घालमेल है तो सभी दोस्त क्यों नहीं हो जाते। दास जी वोले, बेटा जब सब बाहर वाले एक हो जाएंगे तो अंदर वाले बाहर जाने लगेंगे। यह तो अटल सत्य है। किसी का कल्याण जब साइकिल पर बैठकर नहीं होता तो वह कमल को देखकर ही आत्मविभोर हो जाता है। एक चमचे ने कहा, महाराज जब हाथी विशाल है तो उससे लोग लड़ते ही क्यों है। दास जी बोले, चमचे। यह दोस्ती और दुश्मनी तो असल में नजरों का फेर ही है। कब बाहर वाला अंदर दोस्ती निभाये यह पता ही नहीं चलता। ऐसे दोस्तों को छुपा रुस्तम कहते हैं। रुस्तम कब छिपकर विभीषण बन जाए पता ही नहीं चलता।
अंत में दास जी बोले, बेटा दोस्त उसको मानना जो प्रभावशाली हो। दुश्मन उसको मानना जो तुम्हारा कुछ बिगाड़ न सके। इस सूत्र पर चले तो बल्ले-बल्ले होगी, वरना...
दास जी के इस गूढ़ वाक्य को सुनकर चमचे वाह-वाह कर उठे।
पंकुल

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

मैं कुत्ता(3)- क्षेत्रवाद हमारी पहचान






दोस्तों बहुत दिनों के बाद मुलाकात हो रही है। हम कुत्तों की आदत ही कुछ ऐसी है कि जहां एक बार पंजों से मिट्टी उड़ाकर बैठे तो झपकी लग ही जाती है। खैर बात हो रही थी हमारी कुत्तानीयत की। अरे जब इंसानों की नीयत को इंसानीयत कहते हैं तो कुत्तों की नीयत को और क्या कहेंगे। हम कुत्ते सदा से क्षेत्रवादी रहे हैं। इसे दूसरी तरह ऐसे भी समझा जा सकता है कि हम कुत्ते विस्तारवादी नहीं होते। एक मोहल्ले से निकलकर हम ज्यादा इधर-उधर भागते ही नहीं है। जब जाते भी हैं तो दूसरे कुत्ते टांग खिंचाई कर देते हैं।


इंसानों में यह सगुण हम से ही ट्रांसफर हुआ। हर कोई अपने ही मोहल्ले में घूमता है। जिस इंसान को जिस विभाग में ठेके लेने होते हैं वह उन्हीं अधिकारियों के आगे पूंछ हिलाता है। जब ठेके लेने के लिये दूरे विभाग में जाता है तो वहां उसकी कुत्ता खिंचाई होती है। मोहल्ले के कुर्ताधारी अपने क्षेत्र में ही भाषण देते हैं,दूसरे क्षेत्र में जाने की हिम्मत कुछ बिरले ही करते हैं। आप लोगों को इस काम में दूसरे कुत्ते सारी इंसानों का सहयोग मिल जाता है। इस मामले में यहां कुत्तानीयत हमारे यहां विशुद्ध है। हमने तो सुना है आप लोगों ने अपनी-अपनी पार्टियों के भी मोहल्ले बना लिये हैं। चलो अच्छा ही है। हमारी व्यवस्था विशेष है और इस व्यवस्था में बुरा मानने वाली कोई बात भी नहीं है। हम अगर इस व्यवस्था, इस अनुशासन को नहीं मानेंगे तो आपकी तरह अव्यवस्था फैल जाएगी। आप लोग तो जहां मन हुआ वहां मोहल्ला नीति का पालन करते हो और जब अपना फायदा हुआ तो तुरंत राष्ट्रव्यापी हो जाते हो। हमारी व्यवस्था से खाने का संकट कभी नहीं आता। हमारे मोहल्ले के लोग जानते हैं किस-किस कुत्ते को खाना देना है। सुरक्षा का संकट भी नहीं आता। कोई हमारे बहन-बेटी की अस्मत पर हमसे बिना पूछे हाथ भी नहीं डाल सकता। पर आप तो जानते ही हो, आखिर हम कुत्ते ही जो ठहरे। कभी-कभी प्रेमालाप के लिये दो मोहल्लों की सीमा तोड़ दी जाती है। यह तो वैसे ही समझो जैसे मैत्री बैठक हो रही हो। हकीकत ये है कि असल कुत्ता हमेशा क्षेत्रवादी होगा। हमें अपने इस क्षेत्रवादी या यूं कहें मोहल्लावादी होने पर हमेशा गर्व है। हमारे यहां मोहल्लावाद इतना शक्तिशाली है कि जातिवाद आता ही नहीं। हम तो ऐसे जानते हैं जैसे टामी नुक्कड़ वाला, कालू हलवाई वाला, राज्जा दारू वाला, भूरा अंडेवाला...। इसमें कोई कोटा भी फिक्स नहीं है। इतना तय है कि भूरा के बच्चे अंडे की ठेल के आस-पास ही घूमेंगे और राज्जा के दारू वालों द्वारा छोड़े गये दोने ही चाटेंगे।
(more)

पंकुल

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

पुज गये महाशय

पुज गये महाशय। सौभाग्य की बात है हर विलुप्त प्राय वस्तु की तरह आपका का भी एक दिन आ ही जाता है। सुबह से इठलाने का आनंद ही कुछ निराला है। शाम हुई और भूखी-प्यासी पत्नी ने जब चंद्रमा को याद किया तो आप साक्षात सिर से पांव तक कांप गये होंगे। जब पत्नी ने आपके पांव छुये होंगे तो आपका रोम-रोम सिहर गया होगा। ऐसा ही होता है। जब अचानक खुशी किसी को मिले तो यह आभास स्वाभाविक है। महाशय, साल भर पर्यावरण दिवस, साक्षरता दिवस , हिन्दी दिवस और न जाने कितने-कितने दिवस मना डालते हैं तब कहीं जाकर यह अनुभूति देने वाला दिवस आता है। कहते हैं, घूरे के दिन भी फिरते हैं। सो अपने और आपके भी हर साल एक दिन ही सही फिर ही जाते हैं। शायद इसी दिन को देखकर किसी ने पति परमेश्वर की कहावत का ईजाद कर दी होगी।
कुछ भाभियों, आंटियों को दिक्कत होती है कि पति के पूजन का दिन तो भगवान ने बना दिया, पत्नी पूजन का क्यों नहीं। भैये उन आंटियों और भाभियों को मेरा नमन। पर कभी सुना है कि सांस लो दिवस मनाया जाए। कोई खाना खाओ दिवस या स्नान दिवस आदि भी कभी मनाता है। यह सारे कार्य नित्य हैं। बेतुकी महा ग्रंथ में भगवन दास जी ने स्पष्ट किया है कि जो चीज नित्य-निरंतर है उसका दिवस मनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिसकी उपलब्धता खतरे में हो उसको याद रखने के लिये साल में एक दिन निर्धारित करना धर्म परक है।
वैसे महाशय, मेरा एक सुझाव है। पुजने की परम्परा तो ठीक पर ज्यादा कड़ाई से पेश मत आना। आप तो एक दिन के परमेश्वर ठहरे, 365 दिन का परमेश्वर भी ज्यादा कड़ाई नहीं बरतता। कहीं ऐसा न हो सौ सुनार की और एक लुहार की। आशय समझ ही लिया होगा। भविष्य में ध्यान रखिये और साल में एक दफा पुजते रहिये।
पंकुल

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

बेतुकीः फिर निपट लिये रावण जी

फिर निपट लिये रावण जी। आपके सालाना निपटान दिवस पर आपके पुतले खूब धू-धू कर जले। अरे आपको साक्षात निपटाने की तो किसी में हिम्मत है नहीं। आपके पुतले को जलते हुए देखकर ही अपन तो पुरुषार्थ दिखा देते हैं।
भाई दसानन किसी जमाने में आपके दस सिर हुआ करते थे। आपने एक ही भूल की और अपने पूरे खानदान को मरवा दिया। हो सकता है आपकी यह गलती इन दस सिरों की वजह से ही हो गयी हो। अब दस-बारह पार्टियों के नेता सरकार बनाने के बाद भी एक जैसा नहीं सोच सकते तो आपके दस सिर कैसे सोच सकते थे। आपके किसी एक सिर ने सोचा होगा और आपने किडनेपिंग की योजना बना डाली। दूसरे सिर को इतना मौका तो दिया होता कि वो भले-बुरे की सोचता।
लंकाधिपति, आप अपनी सरकार चलाने के लिए कैसे सोचते थे। कम से कम इतना तो कर ही सकते हो कि थोड़ा सा ये गुर भी नेताओं को दे दो। नेताओं को आपने किडनेपिंग का गुर तो सिखा दिया। सीता हरण की तरह महिलाओं के अपहरण में भी निपुण बना दिया। मैंने सुना है आपके दस सिरों में एक सिर विद्वान का था। लगता है राम का वाण लगते ही आपके विद्वान सिर मुक्ति मिल गयी। बाकी बचे नौ सिर हर बार छह नये रूप में पुनर्जन्म लेते रहे। तभी तो आज आपके नौ सिरों के करोड़ों रूप पैदा हो गये। आपने लंका में घर बनाया था। अब तो हर शहर, हर गली में आपके नौ सिरों के अवतार पैदा हो गये हैं। सड़क चलते कब कौन सा रावणावतार प्रकट हो जाए पता नहीं।
जैसे आप वेश बदलने में माहिर थे, वैसे ही आपके अवतार भी हैं। कभी वोट की भिक्षा लेने के लिए घर-घर चक्कर लगाते हैं तो कभी किसी और रूप में।
हे रावण। इतनी शिक्षायें आपने दीं तो कम से कम एक शिक्षा और दे देते। आज के मिलीजुली सरकार के युग में एक सिर ऐसा पैदा कर देते जो कम से कम ढंग से सरकार तो चला लेता। हम आपको हर साल मारते रहेंगे। हर साल गली-मोहल्ले में तुम्हारा जुलूस निकालते रहेंगे जब तक तुम पूरे न निपट लो या हमें न निपटा दो। आपको निपटाने के लिए अभी तो राम जी को भी आने की फुर्सत नहीं दिख रही। यह भी हो सकता है इतने सारे रावणों को निपटाने में अकेले श्रीराम को प्राबलम आ रही हो। खैर, जो भी हो, हम तो इंतजार ही करेंगे।
पंकुल

मृग मारीचिका

दुनियां के इस रेगिस्तान में
ये मेरे निसां
आंधी के इक झोंके में
मिट जाएंगे।
फिर रह जायेगी इक सूनी जमीं
और चतुर्दिशा में बढ़ता
अंजान लोगों का काफिला
जो छूना चाहता है
वह मृग मारीचिका
जिसकी तलाश में मैंने
उम्र तमाम की।
और न जाने कितने लोग
दफन हैं इस रेगिस्तान में।
पंकज कुलश्रेष्ठ

रविवार, 14 सितंबर 2008

बेतुकी - बहुत याद आती है तुम्हारी

कसम से, तुम्हारी बहुत याद आती है। बिल्कुल हर्ट से कह रहा हूं। यों भी कह सकता हूं, तुम्हारी याद में आंसू बहा रहा हूं। अपने प्रियजनों की तरह हर साल तुम्हारी याद करता हूं। दर्जन, दो दर्जन लोगों से तुम्हारी तारीफ भी करता हूं। पर मुकेश का एक गाना मेरे रग-रग में बसा हुया है। जो चला गया उसे भूल जा। मैंने इसी लिए तुम्हें हमेशा भूलने की कोशिश की। मैं जानता हूं जाने वाले कभी लौट कर नहीं आते। पर रस्मों-रिवाज भी टाले नहीं जा सकते हमने आज भी यही कहा, ओ जाने वाले हो सके तो लौट कर आना।
इन्हीं रस्मो-रिवाज के बीच जब हमें चार लोगों के बीच भषणियाना पड़ा तो बहुत डिफीकल्टी फील हुआ। पर हमने भी शुरूआत से ही जो कहा, सभी वैरी गुड-वैरी गुड कहते नजर आये। हमने शुरूआत की, आई लव हिन्दी। नेचुरियली हिन्दी, हिन्दुस्तान की लेंग्वेज है। हम सभी लोगों को हिन्दी को प्रमोट करना ही चाहिए। कम से कम एक दिन तो हम हिन्दी की याद में बिता ही सकते हैं। आई फील, हिन्दी में डेली काम करना परेशानी का सबब हो सकता है। आज हमें विश्व में तरक्की करनी है तो अंग्रेजी को भी उतना ही सम्मान देना होगा। बट, ऐसा नहीं कि अंग्रेजी बोलने से हिन्दी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा।
इसी बीच वहां बैठे मेरे अजीज ने मेरा समर्थन किया। बोले, कम से कम अपने मजदूरों से बात करते वक्त तो हमें हिन्दी में ही बात करनी चाहिए। तभी एक भाई बोले,सर क्या बतायें, हिन्दी बहुत ही फनी लेंग्वेज है। मैंने तो अपने बच्चों को भी कहा है कि हिन्दी जरूर सीखें। मेरी बिटिया बता रही थी ट्रेन को लौह पथ गामिनी कहते हैं। मीटिंग में बैठे सभी दोस्त एक साथ बोले व्हाट फनी। आओ चलो अब मीटिंग को खत्म कर दिया जाए।
लास्ट में वी आल लव हिन्दी। जोर से कहो, वी आल लव हिन्दी।
थैन्क्यू।
और अंत में, मैं जब इंटर में पढ़ता था तो मेरे एक मित्र ने दो पंक्तियां सुनायी थीं। इन पंक्तियों के लेखक से अनुमति सहित यहां प्रस्तुत करना चाहूंगा
हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दीजैसे प्रश्नवाचक चिन्ह के नीचे लगी बिन्दी


पंकुल

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः कपड़ों से फर्क पड़ता है

कुछ समय पहले ही बात है। दास जी अपने सरकारी बंगले के अंतःपुर में विश्राम कर रहे थे। आस-पास चमचों की चटर-पटर रोजाना की भांति ही माहौल को चमचामय बनाने में सफल हो रही थी। प्राचीन समय के इद्रलोक की भांति ही अप्सराएं भी वहां मौजूद थीं। सोमरस का पान करते हुए दास जी इस अति सम्मोहनशाली माहौल को देखकर मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
इसी दौरान एक चमचे के मन में कोई शंका पैदा हुई। शंका हो और दासजी उसका समाधान न करें ये असंभव बात है। चमचे ने किंचिंत सोचनीय मुद्रा बनाते हुए प्रश्न किया दास जी आखिर सभी नेता सफेद कपड़े ही क्यों पहनते हैं। प्रश्न बहुत ही गंभीर। चारों ओर सन्नाटा सा पसर गया। सभी चमचे एकटक दास जी के मुंह की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगे। जैसे वहां से वेदवाक्य अब फूटे कि अब फूटे। दास जी की मुद्रा बिल्कुल ऐसे जैसे कभी सूत जी की हुआ करती थी। प्राचीन काल में लोग सूत जी से इसी तरह के प्रश्न किया करते थे।
कुछ क्षण सोचने की मुद्रा के बाद दास जी ने अपना मुंह खोला। बोले चमचे तुमने बहुत ही नेक प्रश्न दागा है। मैं इस प्रश्न का उत्तर जरूर दूंगा। सुनो सफेद कपड़े पहनने के तीन मुख्य कारण हैं।
(1) हमारे समाज में प्राचीन काल से ही कपड़ों के रंग और ढंग का विशेष महत्व रहा है। राजा-महाराजा भी समय और परिस्थितियों के अनुकूल ही वस्त्र धारण करते थे। जब कभी शोक का माहौल होता था सफेद वस्त्र पहने जाते थे। आज जनता गरीब है और हमें हर समय शोक के माहौल में डूबा रहने पड़ता है इसलिए सफेद वस्त्र पहने जाते हैं।
(2)सफेद वस्त्र शांति का प्रतीक है। हमें हमेशा शांत रहकर ही दूसरों के घर में अशांति फैलाना पड़ता है। इसलिए सफेद रंग से बेहतर दूसरा रंग नहीं होता।
(3) सफेद रंग पर कभी भी कोई भी रंग आसानी से चढ़ सकता है। हमारा कोई भरोसा नहीं, सुबह लाल रंग में बैठे हैं तो शाम को केसरिया ओढ़ लिया। कभी हरा रंग नजर आने लगता है तो कभी लाल-हरे-नीले से प्रेम हो जाता है। बालक यही कारण है जब चाहे जो रंग मिले, सफेद पर पर तुरंत चढ़ा लो।
चमचे ये जवाब सुनकर बेहद प्रसन्न हुए, और दास जी वहां से अंतर्ध्यान हो गये।
पंकुल

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

क्षणिकाएं

कशमकश
मैं हूं कि नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
सोचता हूं कुछ करूं
अपने अस्तित्व का आभास खुद करूं
दूसरों को करा दूं
सहारा बन सकूं किसी बेसहारा का
उतार फेंकूं ये लिबास पाखंडों के
पर क्या मैं यह कर सकूंगा
शायद हां या नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
मैं हूं कि नहीं।

पंकज कुलश्रेष्ठ

छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का इस धरती पर
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर
अब बच्चों की चीखों
अबलाओं के आंसू
और मजबूरों की आहों से
नहीं डोलता सिंहासन इंद्र का
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर
पहले द्रोपदी के अपमान का
बदला पांडवों ने लिया
अब तो पांडवों ने ही
द्रोपदी का चीरहरण किया
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर

पंकज कुलश्रेष्ठ

बुधवार, 10 सितंबर 2008

राधा रानी का मना जन्मदिन




















भादौं की मस्ती मथुरा में पिछले दिनों छायी रही। जन्माष्टमी के बाद आठ सितम्बर को मथुरा के मंदिरों में कृष्ण प्रिया राधा रानी का जन्मदिवस मनाया गया। राधा रानी की जन्म स्थली रावल में राधा जी का दुग्धाभिषेक हुआ। इससे एक दिन पहले सात सितम्बर को बरसाना के श्रीजी मंदिर में श्रद्धालुओं की मस्ती देखते ही बनती थी। यहां छह सितम्बर से ही लोगों ने नाच-गाकर अपनी आराध्य श्रीजी राधा रानी को प्रसन्न करने का प्रयास किया। आप इस आयोजन में शरीक नहीं हुए पर मैं कुछ फोटोग्राफ यहां लगा रहा हूं जिन्हें देखकर आप संतुष्ट हो सकते हैं।
अंतिम फोटो रावल के मंदिर में राधा रानी के दुग्धाभिषेक का है।शेष चित्र श्रीजी मंदिर बरसाना और बरसाना में उमड़ी भीड़ और यहां की मस्ती के हैं।
पंकज कुलश्रेष्ठ

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

अंतर

सावन और भादों, बरसात का मौसम। बड़े शहरों की तो नहीं मालूम लेकिन छोटे शहरों के लिए बारिश अक्सर मुसीबत लेकर ही आती है। हर बार बारिश और हर बार सड़कों पर भरने वाला पानी। इस पानी, यों कहें गंदे और नाले के पानी में बच्चों का कूदना और नहाना। सफाई की दृष्टि से इसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता लेकिन.....
अंतर
ये झोपड़ियों में रहने वाले,
बरसाती नालों में नहाने वाले लोग,
हमसे तो कहीं बेहतर हैं।
पानी में बंद होने वाली गाड़ियों
नाले में डगमग कर गिरने वाले
बूढ़े और बच्चों को
ये खुद
बाहर निकाल लाते हैं
गंदे पानी में ये मन का मैल
पूरी तरह धो डालते हैं
पर एक हम हैं
कोठियों और बंगलों में रहने वाले
गंगा के साफ पानी में नहाकर
अपाहिज और लाचारों से बचते हुए
मंदिर का रास्ता ढूंढते हैं
कहीं वो हमसे छू न जाएं
हम साफ पानी में नहाकर भी
मन साफ नहीं कर पाते हैं
हमसे तो अच्छे वो हैं
जो गंदे पानी में नहाते हैं।
पंकज कुलश्रेष्ठ

रविवार, 7 सितंबर 2008

मैं कुत्ता (2)... वफादारी तुमने छीन ली इंसान


हम कुत्तों को वफादारी विरासत में मिली थी। मैं सतयुग से देख रहा हूं, कुत्ते आदमी तो आदमी, बिल्ली-बिलौटों तक के प्रति वफादार रहे हैं। जिस घर में कुत्ते-बिल्ली साथ-साथ रहते हैं वहां हमारी वफा का आंकलन किया जा सकता है। पहले तुम इंसानों ने भी हमसे वफादारी सीखी थी। अब हालात बिगड़ते जा रहे हैं। आप लोगों की तरह अब कुत्तों का भी भरोसा करना मुश्किल होता है। कई बार ऐसा होता है जब कुत्ता आपके पांव चाटते-चाटते ही पैर में काट लेता है। आप उसे रोटी खिलायें और वो गुर्रा कर भाग जाए। ऐसा भी नामुमिकन नहीं कि वही कुत्ता आपके घर के बाहर भौंकना ही छोड़ दे। और तो और ये भी हो सकता है कि चोर उचक्कों को भौंक-भौंक कर आपके घर के अंदर ही छोड़ आये। इसे हमारे यहां इंसानी फितरत कहते हैं। आप लोगों में तो पता नहीं कब कौन आपके पीछे चलते-चलते तंगड़ी मारकर आगे निकल जाए। कई पार्टियों के छुटभैये नेता इसी फितरत के चलते आगे बढ़ते हैं। जो लोग एक-दूसरे की गलबहियां कियें हों उनकी गारंटी नहीं कल भी साथ-साथ ही बैठेंगे।
आप लोगों की आदत होती है जिसकी थाली में खाओ उसी में छेद कर दो। कोई भला मानुस आपको घर पर खाने के लिये बुलाये और आप खाना-खाने के बाद इंकम टैक्स वालों को और भिजवा दो। नेताओं को चंदा देना हो तो अपने पड़ोसी का पता बता दो। हां जब नेताओं से काम निकलने हों तो उन्हें अपने घर पर बुलाकर तलुवे चाटो। एरिये का थानेदार जब तक पोस्टिंग पर रहे, उसकी जी हजूरी करो। जब थानेदार का तबादला हो जाए तो अपना मोबाइल बंद कर लो । बास का फोन आये तो तुरंत हलो करके मिमियाने लगो। जब किसी फोकटिया का फोन हो तो रांग नम्बर कहकर फोन रख दो।हमारे यहां भी ऐसा होने लगा है। जब पड़ोसी मोहल्ले का दमदार कुत्ता आता है तो सभी दुम हिलाते-हिलाते दूर-दूर चलते हैं। जब अपने मोहल्ले का मरियल कुत्ता भी आता है तो उसे फफेड़ डालते हैं। नेताजी चुनाव हार जाएं तो कोई पूछने वाला भी नहीं बचता। नेताजी मंत्री बन गये तो अड़ोसी-पड़ोसी के चमचे भी रिरियाने लगते हैं।
हम कुत्तों की तरह कुछ इंसान भी फालतू होते हैं। इन लोगों के पास भी सिर्फ अड़ोसी-पड़ोसी की घर में सूंघने के सिबाय कुछ काम नहीं। किसकी कितनी आमदनी है, किसके कितने बच्चे हैं और कौन क्या कर रहा है यह काम आप लोग करते हो। हमारे यहां आप किसी भी कुत्ते से पूछ सकते हैं किसके घर क्या बना है। जैसे आपको जो कमीशन दे दे उसका पता अपने बाप को भी नहीं बताते, ऐसे ही जो हमें रोटी देता है उसका घर नहीं बताया जाता।
जिसके दरवाजे पर आपको कमीशन मिलने की संभावना हो। जिसका नाम लेकर ही आपका काम थाने-चौकी में हो जाए आप उसी नेता के घर के आस-पास मंडराते हो। सुबह हो या शाम, नेताजी को खुश रखने का काम करते हो। जिसकी गाड़ी में दो -चार घंटे बैठने के एवज में दो पैग मिल जाए, थोड़ी सी बोटी खाने को मिल जाए वहीं पर भीड़ भी नजर आती है। अरे आप ही लोग कहते हो, जहां गुड़ होगा वहां चींटे तो आयेंगे ही। हमें भी जहां दो चुपड़ी रोटी मिल जाएं वहीं दुम हिलाते हैं। जिसके यहां ज्यादा अच्छी रोटी मिलेगी वहीं पर खड़े हो जाएंगे, बिल्कुल आपकी तरह। जो नेता ज्यादा अच्छा खिलायेगा उसके यहां खिसक जाएंगे। (क्रमशः)
पंकुल

शनिवार, 6 सितंबर 2008

बहुत निकले अरमां पर अभी तो कम निकले

भैया गयी भैंस पानी में। घबड़ाओं नहीं अभी जाने वाली है। हाथ का जो होना है सो तो होगा ही पर हाथ के इन चश्मेबद्दूरों का क्या होगा। बेचारे बड़े अरमान से साइकिल की घंटी बजा रहे थे। एक बेचारे, संगठन के मारे। बार-बार हारे। अपनी धर्मपत्नी को लखनऊ पहुंचाने की कोशिश भी की पर साइकिल ने बेचारे का हाथ कुचल दिया। सोचा अब तो कम से कम साफ्ट लायन पिघल जाएंगे। इसीलिये साइकिल के कसीदे कस रहे थे। मैडम तक से जुगाड़ लगवा ली। तरन्नुम में गा रहे थे, ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे। नेताजी को उम्मीद थी कि कम से कम उनका चांस तो लगेगा ही। पिछले बीस साल से पार्टी को वहां से यहां तक लाने में इनका भी कम योगदान नहीं है। जब जी चाहा, प्रदेश के आका बन गये। लम्बी से अचकन पहनी और घूम। अब अगर उनके कहने से कोई वोट नहीं डालता तो बेचारे का क्या कसूर है। अपनी तरफ से तो हमेशा कोशिश ही की।
पर लायन तो आखिर लायन है। शोले के गब्बर सिंह की याद दिला दी। मार दिया फिल्मी डायलाग। क्या सोच कर आये थे। सरदार सीट छोड़ देगा। तुम्हें सीट परोस कर अपने एम.पी. के हाथ में कटोरा थमायेगा। अरे किस-किस के लिये छोड़ेगा सीट। तुम्हारे गांव में तो सभी नेता हैं। हर कोई सीट के लिये जीभ लपसिया रहा है। हाथ की दुर्गति तो कर ली, अब आगे चांस मार रहे हैं। तमाम लम्बी अचकन वालों के अरमानों पर साफ्ट लायन ने पानी फेर दिया। भैया क्या बिगड़ जाता। दोस्ती की तो निभाते। अरे अपनी खातिर न सही हमारी खातिर ही निभाते।
पर साफ्ट लायन जानता है। जो औकात चचे ने हाथ की बना दी है उसकी साइकिल टनटना कर चल सकती है। मजे से चल सकती है। लायन ने इसीलिये रिंग मास्टर को कुछ नहीं कहा। रिंग मास्टर जब तक कब्जे में है तब तक लायन का पिंजड़ा दूर ही है। जितनी मंकी घुड़की से काम चल जाए उतना बढ़िया। एक कहावत याद आ रही है न मोकू और न तो कू ठौर। इस घुड़की से सबसे ज्यादा अपने छोटे चौधरी को दिलासा मिली है। अब रोजाना मंदिर में जाकर दीपक जलायेंगे। अरे चुनाव से भले ही दो महीने की जुगाड़ बने, बत्ती तो जले।
पंकुल

शनिवार, 23 अगस्त 2008

बेतुकीः बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे कन्हाई

कन्हैया मजे में हो। मंदिर-मंदिर बगल में बांसुरी दबाये मुस्कराते हुए एक टांग पर खड़े-खड़े बहुत आनंद आ रहा है। सुबह शाम माखन मिश्री के भोग लग रहे हैं। महीने में छत्तीस बार छप्पन भोग चख रहे हो। हमसे तो कह दिया कर्म किये जा फल की इच्छा मत करना। अरे, अपन को फल तो क्या सूखी रोटी भी नसीब नहीं हो रही। हमें फल की कोई इच्छा भी नहीं। छप्पन भोग तुम्हीं खाओ। हमारे खाते में सुबह-शाम एक भोग ही कर दो, हम तो उसी में खुश हो जाएंगे।
वैसे जनाब, आप एक ही टांग पर क्यों खड़े हो जाते हो। शायद इसलिये कोई बुलाये तो तुरंत आ जाओ। द्वापर में भी तुम्हारी आदत ऐसी ही थी। मनसुखा ने आवाज लगायी और चल दिये। पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता होती तो मैया घर से निकलने काहे देती।
तुम पर आज कल फिल्मी दबाव बन रहा है कि एक बार फिर आकर देखो। कोई कह रहा है, एक बार आजा, आजा, आजा। कुछ कहते हैं कन्हैया, कन्हैया तुम्हें आना पड़ेगा। तुम्हें बुलाने वाले दोनों ही तरह के लोग हैं। कुछ चाहते हैं लाखों कंसों का नाश हो जाए। लेकिन कंस चाहते हैं कि एक बार आकर तो देखो। तुम अपने दरवाजे पर खड़ी लाखों की भीड़ को देखकर कन्फ्यूज मत हो जाना। ये तो इसलिये आते हैं कि थोड़ी बहुत श्रद्धा भक्ति का प्रसाद उनकी तरफ भी खिसक जाए। ये लोग सुदामा से इंसप्राइड हैं। अपने साथ दोना भर प्रसाद लाते हैं। हर बार तो तुम्हारे पर रुक्मणि नहीं बैठी रहेंगी। कभी तो एक-दो इलाइची दाना खाओगे ही।
मेरी व्यक्तिगत सलाह है तुम भूलकर भी यहां मत आना। भाया भले ही तुम्हारे मंदिरों में करोड़ों की सम्पत्ति है। तुम्हारे हाथ में सोने-चांदी की बांसुरी और सिर पर मुकुट रहता है लेकिन बाहर आते ही ये सब गायब हो जाएगा। तुम्हारे नाम पर इंकम टैक्स बचाने वाले अपना-अपना माल ले उड़ेंगे।
तुमने तो सिर्फ गाय चराना सीखा था। अब तुम्हारी गाय माता तुम्हारे भर के लिये दूध दे दें तो गनीमत मानना। बेचारी का खुद ही ठिकाना नहीं रहा। हमने तो भैंस मौसी का इंतजाम कर रखा है। किसी गलतफहमी में मत रहना। दूसरों की भैंस खोलना आसान काम नहीं। हर झगड़े के बाद पूछना पड़ता है तुम्हारी भैंस खोली थी क्या। तुम जब छोटे थे तो पढ़ाई का टंटा नहीं था। अब तो सुबह पांच बजे उठते ही मैया पांच किलो का बस्ता पींठ पर टांग देगी। तुम्हारी आदत थोड़ी डिफर थी। घर से निकले और पहुंच गये क्रिकेट खेलने। गोपियों की मटकी फोड़ी और मक्खन चुराकर खा लिया। पहले तो मैया को गाना सुनाकर काम चल जाता था। तुमने कह दिया मैया मोरी मैं न ही माखन खायो और मैया मान गयीं। अब तो पुलिस अंकल का डंडा चलेगा तो बिना खाये ही बोल दोगे, मैंने ही माखन खायो। तुम्हारा नाम तो हर थाने की लिस्ट में आ जाएगा। हर तीज- त्यौहार पर थानेदार साहब के चक्कर लगाने पड़ेंगे। एक दो जमानती भी साथ रखना पड़ेगा।
बाकी तुम तो बहुत समझदार थे। अर्जुन को इतना बड़ा उपदेश दे डाला। अब आकर कंस मामा के थप्पड़ मारने की भी कोशिश न करना। एक साथ दर्जनों धारएं लग जाएंगी। अपने यहां सारा काम अब कानून ही करता है। कानून की आंखों पर हमने पट्टी बांध दी है। ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे जमाने में गांधारी ने पट्टी बांध ली थी। गांधारी ने हमेशा देश का भला ही चाहा, वैसे ही हम भी चाहते हैं। अगर गांधारी न होती, तो धृतराष्ट्र अपने प्रिय दुर्योधन के पुत्र मोह में कैसे फंसते। अगर दुर्योधन न होते तो महाभारत न होती। महाभारत न होती तो तुम्हें गीता का उपदेश देने का बेहतरीन मौका कहां मिल पाता। तभी तो तुमने कहा था, जो हो रहा है, अच्छा है। होने वाला है वह भी अच्छा होगा। अब यहां आकर अपने गीता के उपदेश का अक्षरशः पालन करके दिखाना।
बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे कन्हाई। हकीकत ये है नाटकों में तुम्हारा रास देखने वाले, तुम्हें गांव, गलियों में रास करने की इजाजत नहीं देंगे। तुम्हारे समय में सब लीगल रहा होगा। अब तो कोई गोपी ही थाने ले जाएगी तुम्हें। रोजाना अखबार में पड़ रहे होगे, प्रेमी की धुनाई। इसमें कई तो तुम्हारे रास से प्रेरित रहे हैं बेचारे।
मैं एक चीज तो भूल गया। तुम्हें ड्राइविंग का बहुत शौक था। तभी तो अर्जुन का रथ ड्राइव करने चले गये। अब तांगा चलाओगे तो थोड़ा बहुत कमा सकते हो। पर इतने भर से छप्पन भोग की जुगाड़ होने से रही। तुमने यमुना में कालिया को निपटाया। हमारे यहां अमिताभ बच्चन ने कालिया की ऐसी-तैसी कर दी। तुम यमुना के कालिया की बात करो तो हमने यमुना को इस काबिल ही नहीं छोड़ा कोई कालिया उसमें रहे।
तुमने अपने जमाने में एक बहुत बड़ी गलती की थी। खुद कहते रहे, आत्मा अजर-अमर है और खुद ही कंस और उसके भाई बंधुओं को मार दिया। हमने सुना है हर बार आत्मा छह गुनी हो जाती हैं। तभी तो तुम्हारे यहां का एक कंस इन सबा पांच हजार साल में लाखों तक पहुंच गया। खुद मोक्ष लेकर चले गये। अब कंस आता रहा और तुम सिर्फ मंदिर में, पोस्टर में मुस्कराते रहे। तुम आओ तो अपनी बांसुरी भी छोड़ आना। अब सड़क चलते लोग महिलाओं के गले की चेन नहीं छोड़ेते, तुम्हारी बांसुरी एक दिन भी नहीं बचेगी। न न। बांस वाली भी मत लाना। हम नहीं चाहते कोई तुम्हें नीरो कहे। नीरो को तो जानते ही होगे। कहा जाता है, रोम जल रहा था और नीरो चैन की बांसुरी बजाता रहा। हम इतने भी खुदगर्ज नहीं। हमें तो मुकेश दादा की याद आ रही है। मुझे तुमने कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। तुम तो भैया मंदिर में बैठे-बैठे अपना जन्मदिन एन्ज्वाय करो। सुबह शाम छप्पन भोग खाओ।
आखिरी शिकायत। तुमने सैकड़ों लोगों का संडे खराब कर दिया। बेचारे लगे हैं तुम्हारी सेवा शुश्रुभा में। चलो, सब चलता है। हैप्पी बर्थडे अगेन।
पंकुल

सोमवार, 18 अगस्त 2008

बेतुकीः चचा, कहां चले

बड़े बे आबरू होकर तेरे कूचें से हम निकले, अब तो बस ये सोच रहें हैं कि इधर निकलें कि उधर निकलें। अपने पड़ोसी मुशर्रफ चचा की हालत कुछ ऐसी ही नजर आ रही है। बेचारे, अपने घर में बेगाने हो गये। ऐसे भी कर्म नहीं किये कि पड़ोसी दो रोटी के लिये भी पूछे। इसीलिये कहा गया है, हमेशा आस-पड़ोस में शराफत से काम लेना चाहिए।
अपने दास चाचा तो इतने शरीफ हैं कि भाभी के चले जाने पर महीनों उनका अड़ोस-पड़ोस में ही चाटने-चटोरने में बीत जाता है। लेकिन मियां मुशर्रफ हैं कि माने ही नहीं। अरे, हमारे घर (आगरा) आये तो बहुत समझाया। भैया मान जाओ। पड़ोसी से ज्यादा कभी कोई काम नहीं आता। पर नहीं। ऐंठ ऐसी जैसे अमृत पीकर आये थे। सोचा था जब तक जीयेंगे सरकार में जीयेंगे। पड़ोसी छोड़ो, घर में भी किसी को नहीं छोड़ा। अच्छे-अच्छे तीसमारखां मैदान छोड़कर भागते नजर आये। अब खुदकी हालत खस्ता है। वैसे मियां मुशर्रफ की फितरत ही कुछ अजीब सी है। 1998 में बेचारे नवाज ने उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया और एक साल में उन्हें ही खिसका दिया।
मियां अगर ठीक-ठाक काम किये होते तो अपन दिल्ली वाली हवेली में ही एक कमरा रहने के लिये दे देते। चक सुबह-शाम खाते और रात में सो जाते। पर तुम्हारा क्या भरोसा कब अंगुली पकड़कर पौंचा पकड़ लो। तुम्हें चचा कहकर कमरा दें और तुम चौके में चले आओ। न बाबा न। इतना बड़ा रिस्क नहीं लिया जा सकता। हां, बड़े चचा तुम्हारा साथ दे सकते हैं। बहुत खुसर-फुसर करते थे दोनों। उनके यहां जाकर सफेद घर में बाहर वाला कमरा मियां तुम्हारे लिये मुफीद रहेगा। सेनाध्यक्ष रहे हो, सैनिक की तरह काम करो। हमारे घर में नहीं, आस-पास भी नहीं रहना। वहीं चले जाओ, मजे में रहोगे। जब तक बड़े चचा कि सरकार है, तुम्हारे भी आनंद रहेंगे।
एक छोटा सा सुझाव याद रखना चचा। अबकी पड़ोसियों से ठीक-ठाक व्यवहार रखना। अबकी नहीं बनी तो घर का कोना तो दूर, बाहर भी कोई नहीं फटकने देगा। अच्छा, अलविदा। भगवान करे, फिर कभी न मिलें।
पंकुल

रविवार, 17 अगस्त 2008

मैं कुत्ता (1). .. पूंछ सीधी करके नाक नहीं कटानी


मैं कुत्ता हूं। अपने दास जी पिछले पांच सौ साल से रिसर्च करके नाक में दम किये हैं। पता नहीं हमारी निजी जिन्दगी में ताक-झांक करके उन्हें क्या मिल गया। चलो कोई बात नहीं। जब उन्होंने ताक-झांक ही कर दी है हम ही उनकी बात लिखे देते हैं।
मैं कुत्ता हूं। मेरी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक साख तुम मनुष्यों से कुछ ज्यादा है। मेरा उल्लेख प्राचीन पुराणों में भी है। तुम्हारे इष्ट धर्मराज युधिष्ठर जब स्वर्ग गये तो मैं अकेला ही उनके साथ था। देवी-देवताओं के साथ भी मुझे अक्सर स्थान मिल ही जाता है। तुम जैसे स्वार्थी मनुष्य मेरे काले वर्ण की पूजा करते हैं। मैंने आज तक किसी मनुष्य की पूजा नहीं की।
मुझे सबसे ज्यादा परेशानी तब होती है जब लोग मेरी पूंछ के पीछे पड़ जाते हैं। तुम लोगों ने कहावत बना ली है कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी ही रहेगी। अरे हमने आज तक कभी आपकी मूंछ के बारे में कहा। हमारी पूंछ से आपको क्या लेना-देना। पूंछ हमारी शान है। जिसकी पूंछ जितनी घुमावदार और टेढ़ी समझो कुत्ता समाज में उसका उतना ही महत्व। दर्जनों कुत्ते उसके आगे-पीछे घूमते फिरते हैं। जैसे तुम लोगों के यहां लम्बे कुर्तों वालों की जमात होती है। जिसका जितना लम्बा कुर्ता उतना बड़ा नेता। तुम लोग अपने कुर्ते का साइज घटाते-बढ़ाते रहते हो। हमारे यहां यह सुविधा सामान्य तौर पर उपलब्ध नहीं है। वैसे जल्द ही ब्यूटी पार्लर खुल सकते हैं जहां हमारी पूंछ को टेढ़ा किया जा सकता है। ये तो तुम भी जानते हो हमारी पूंछ को सीधा भले ही नहीं किया जा सके, पर टेढ़ा करने में कोई परेशानी नहीं है।
ऐसा नहीं, हमारे यहां सीधी पूंछ वाले नहीं होते। कुछ बदकिस्मत सीधी पूंछ किये रहते हैं। ऐसे कुत्ते हमेशा दूसरों के पीछे ही घूमते रहते हैं। चापलूसी उनकी आदत में शुमार हो गया है। दरअसल जबसे हम कुत्ते आबादी के नजदीक आते जा रहे हैं मनुष्यों के दुर्गुण हममें समाते जा रहे हैं। कुत्तों को दो रोटी डाल कर तुम उन्हें दुम हिलाऊ बना लेते हो। ऐसे कुत्तों का हमने बायकाट करने का फैसला किया था लेकिन मतदान में वह प्रस्ताव गिर गया। जब दुम हिलाऊ कुत्तों की बात चली तो चिल्ल-पौं शुरू हो गयी। दुर्भाग्य तो ये रहा कि तमाम ऊंची पूंछ किये फिरने वाले कुत्ते भी बंद कमरे में दुम हिलाते ही नजर आये।
तुम्हारे मनुष्य समाज में यह प्रथा बहुत ही पुरानी है। तुम लोगों ने इस काम को सर्विस टैक्स बना लिया है। दलाली तुम्हारी आदत है। किसी की थाने में रिपोर्ट लिखवायी तो दलाली। किसी का ट्रांसफर करवाया तो दलाली। किसी की नौकरी लगवायी तो दलाली। किसी को ठेका दिलवाया तो भी दलाली। तुम्हारी इसी आदत के चलते गांव और मोहल्ले के कुत्तों ने दरवाजे-दरवाजे जाकर रोटी खाने की आदत डाल ली है। मैं सदियों से देख रहां हूं, गांव में कुत्ते दरवाजे पर रोटी के लिए जीभ निकाले बैठे ही रहते हैं। इन कुत्तों का अपना तो कोई ईमान नहीं। जब चाहे तब कोई इनकी दुम पर पैर रखकर चला जाए। बस दिखाने के लिये रात में थोड़ी सी भौं-भौं कर देते हैं। इसी भौं-भौं की दलाली में रोटी खाते-खाते इनकी उम्र बीतती चली गयी है।
शहरों में तो आपने और भी नरक कर दिया है। चेन से बांध कर जहां चाहा वहां खड़ा कर दिया। हमारी तो कोई निजी जिन्दगी ही नहीं रही। बच्चे-बच्चे तक हमारी दुम को पकड़ कर जहां चाहें वहां खींच ले जाते हैं। ये सब मालूम है सिर्फ इस पापी पेट के लिये कुछ कुत्ते कर रहे हैं। घर बैठे खाने की आदत जो पड़ गयी है। इन्हें अपनी दुम की भी चिन्ता नहीं रही। हमें बहुत बुरा लगता है कुछ मनुष्य दूसरों को कुत्ते की दुम की गाली देते हैं। हमने भी अपने यहां कहना शुरू कर दिया है मनुष्य की मूंछ। आप हमारी पूंछ से छेड़छाड़ बंद करो हम आपकी मूंछ को बख्श देंगे।
तुम्हें सच्ची बतायें। भले ही हम जैसे ऐंठीली गोल-गोल दुम वालों की बकत कुत्तों ने कम कर दी हो लेकिन तुम्हारी कसम आज भी जब कोई गबरू जवान निकल जाता है तो उसकी बात ही निराली होती है। और क्या बतायें, सड़क पर जब वो इठला-इठला कर चलता है तो ओर चारों कुत्ता बालाओं की लाइन लग जाती है। उसकी पूंछ की ओर देखकर तो तुम मनुष्य भी घबरा जाते हो। (क्रमशः)
पंकुल

शनिवार, 16 अगस्त 2008

बेतुकीः न बहना नजर आयीं न भैया

अपने चचा पिछले चौबीस घंटे से बहन और भैया को खोजते रहे पर न तो बहन नजर आयी न भैया। अरे गलत मत समझना। चचा की बहन ने तो उन्हें राखी बांधी। अपुन की बहन ने भी राखी के साथ खूब घेबर खिलाया पर लखनऊ वाली बहन का भाई नहीं आय़ा। भूल गये भैया को। याद करो। थोड़ा और दिमाग को खुजलाओ। नहीं आया पकड़ में। चलो अपन ही बके देते हैं।
एक समय की बात है, कमल वाले लाल हुआ करते थे। जब हाथी वाली बहन पर मुसीबत का पहाड़ टूटा तो भाई पहुंच गये राखी बंधवाने। भाई धर्म निभाया और गिफ्ट में दे दी सरकार। तब बहन मुसीबत में थी। अब बहना को भाई की याद नहीं आयी। अभी क्या पिछले कई सालों से बहन को भाई की याद नहीं आ रही। भाई पर हर कोई चपत लगाने के मूड है और बहन का दिल पिघल ही नहीं रहा।
एक तरफ हाथ साइकिल पर बैठा और चल दिया। बहना है न तो चाचा चौधरी को भाव दिया न ही कमल भैया को। चाचा ने बहुत मगजपच्ची की लेकिन दाल नहीं गली। बहना, कमल भैया पर तो तरस खाओ। अपने बडे़ वाले लाल से तो कम्पटीशन मत करो। बेचारे कितनी सर्दियों से नजर गड़ाये बैठे हैं। रोजाना बेचारे गाना गाते हैं, ये कुर्सी बहुत अच्छी लगती है। लेकिन कुर्सी है कि मानती ही नहीं। सोचा था कुर्सी वाले कन्हैया को तंगड़ी लगाकर खुद मटरगश्ती करेंगे। पर क्या मालूम था अपनी ही बहना भांजी मार देगी। बहना है कि मानती ही नहीं। जो कुर्सी भैया को अच्छी लगी वही बहना को चाहिए। अपने चचा सोच रहे थे कि शायद भैया फिर बहना को कुर्सी दान कर दें। और बहना को दान के लिए रक्षा बंधन से बढ़िया दिन क्या हो सकता था। पर न बहना नजर आई न भैया। चलो..हम इंतजार करेंगे...
पंकुल

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

बेतुकीः आजादी की जवानी मुबारक

बधाई हो, अपन का लोकतंत्र 61 साल का जवान हो गया। अरे भैया जब च्यवनप्राश खाया है तो बूढ़ा काहे होगा। आप क्या सोच रहे थे बेचारा बुढ़ा गया हैं। भाई मेरे, जब अपने प्रधानमंत्री जवान हैं। भावी प्रधानमंत्री युवा और जोशीले हैं तो लोकतंत्र कैसे बुजुर्ग हो सकता है।
जबसे आजाद हुए जवानी बढ़ती चली जा रही है। जवान हैं तभी तो जिसे चाहे मार सकते हैं। किसी की मजाल तो हमारी जवानी के सामने आये। जिसकी जमीन चाहे छीन लें और जिसकी चाहें लौटा दें। हम स्वतंत्र हैं। सड़क पर जब सांड की तरह घूमेंगे तो जिसे चाहे उठा कर फेंक देंगे। हमारी जवानी का यही एक उदाहरण नहीं है। हमने बहुत जतन किये जवानी को बरकरार रखने के लिये।सड़क पर किसी का एक्सीडेंट हो, हम जाम लगायेंगे। देश में किसी की सरकार बने या जाये, हम जाम लगायेंगे। महंगाई बढ़े तो भी जाम लगायेंगे। जाम ही नहीं लगायेंगे बसों में आग लगायेंगे। ट्रेन में तोड़फोड़ करेंगे। सड़क तोड़ेंगे। लोगों के सर फोड़ेंगे। हमारा नारा है, हम अपनी आजादी को हरगिज भुला सकते नहीं, सर फोड़ सकते हैं लेकिन सर बचा सकते नहीं।
हमने आजादी के हर साल में आबादी को बढ़ाया। अगर स्वतंत्र नहीं होते तो आबादी कैसे बढ़ाते। किसी की मजाल जो हमसे कहे कि आबादी रोको। अरे ये तो सब भगवान की देन है। जितने बच्चे उतना आराम। कोई सड़क पर पालिश करेगा तो कोई जेब तराशेगा। अगर हमने आबादी नहीं बढ़ायी होती तो ये काम भला कौन करता। अरे हमें भी दूसरे देशों से पालिश, मालिश करने वाले बुलाने पड़ते। भला हो आजादी का।
आजादी है तभी तो हमारे वोट से जीतने वाले नोट के सौदे करते हैं। आजादी है तभी तो ठेके देने के सौदे होते हैं। जो जितने दाम देगा उतना नाम कमायेगा। आजादी न होती तो हर साल सड़क कैसे टूटती। हर नौ-दस साल में पुल कैसे धराशाई होते। सड़क नहीं टूटती, पुल धराशाई नहीं होते तो बेरोजगारी बढ़ जाती। कितनाबढ़िया इंतजाम है, हर साल सड़क बनाओं और बेरोजगारी मिटाओ। देश में पैसे की अगर कोई कमी होती तो भला दजर्नों मल्टीनेशनल कम्पनी मालामाल कैसे होतीं। हमने कोका कोला, पेप्सी पी-पीकर ही कई देशों का भला कर दिया।
क्या जरूरत है हम गांधी, सुभाष, लाजपत राय, भगत सिहं को याद रखें। ये वेचारे खुद जिन्दा होते तो सभासद का चुनाव नहीं जीत पाते। पार्टी टिकट लेने के लिये भी जुगत लगानी पड़ती। देखना पड़ता कहां कास्ट वोट कितना है। आजादी को जवान बनाये रखना आसान काम थोड़े ही है। सुबह झंडा फहरा दिया अब शाम को छुट्टी एन्ज्वाय करो।
हैप्पी इन्डिपेंडेंस डे।
पंकुल

रविवार, 10 अगस्त 2008

बेतुकीः गोल्ड मैडल तो हमई जीत लाते

चचा, काहे दीदे फाड़-फाड़ कर टुकुर-टुकुर टीवी में घुसत जात हो। क्या सोच कर बैठे हो, आसमान से मैडल टूट-टूट कर गिरेंगे। अपने चीनी चचा हर खिलाड़ी को विदा में एक-एक गोल्ड मैडल देंगे। सब आयेंगे और हंसते-हंसते गोल्ड मैडल हमें दिखायेंगे। चचा यूं ही सदियों तक इंतजार करते रहे। शायद दस-बीस, पचास साल बाद तुम्हारी हसरत पूरी हो जाए।
वैसे गोल्ड मैडल तो हमई जीत लावते। पर का बतायें पंद्रह साल के भये तो घर बालन ने कहो खेल आवौ। मैदान में गये तो पहले हाकी खेलन लगे। हाकी को डंडो उठाओ पर का बतावें हम डंडा लये भागत रहे और गेंद इतर-बितर चली गयी। भागत-भागत एक तरफ से गेंद आयी और हमाये पांव पर आइके ऐसी लागी कि नानी याद आये गयी। हमऊने जोर से डंडों मारो पर वोऊ पांव से जा टकराओ ससुर। पांव फूल कै ऐसो मोटो है गयो कि बला दिनन तक बिस्तर पर ही पड़े-पड़े मोटे है गये।
ठीक भये तो सोचो फुटबाल ही खेलें। हाकी में तो डंडा संभाले कि बाल यई न पता चलो। फुटबाल भली हती। बाये पांव से मारत-मारत इते सै उते ले जात रहे। कबहऊ अपयें गोल में मारी कबहऊ पराये। दूसरे दिना गये तो काऊ ने हमैं खेलन ही नाय दऊ। दादा बोले बचुआ दौड़ लगाये लेओ करो। हमऊ सुबै-सुबै निकल लये दौड़न को। पहले एक मौहल्ला में कुत्ता पीछे पड़ि गये। हमऊ कम नाय हते, और तेज दौड़त गये। पीछऊ देखत रहे कऊं कुत्ता-फुत्ता नाय आय जाए। हम पीछई देखत रहि गये और दूसरी तरफ से कालौ कुत्ता टांग चबाये गयो। हम फिर बिस्तर पर लेटि गये। डाक्टर नै चौदह दिना जो इंजेक्शन भुके भैया बहुत पीर भई। जब ठीक भये तो चाचा बोले लला तुम बच्चा हो कछु दिना बाद खेलन जइयो। और बड़े भये। बड़े कालेज में पहुंचे। कंचा-अंटा, गिल्ली-डंडा तो जानत ही हते, चिड़िया बल्ला खेलन शुरू कर दयो। भैया का भला खेल है। यों उछलो, त्यों उछलो। दये मारौ चिड़या में बल्ला। चिड़िया लगैऊ तो चोट न आवे। दस-बारह साल में थोड़ा बहुत सीख गये तब तलक मैच खेलत सांस उखड़न लगी। सच्ची चचा, तुमाई सौं सांस न उखड़ती तो एक नाय, दो-तीन मैडल जीत लाते।
चचा ये तो रही पुरानी बात। अब तो आटोमैटिक युग है। पर अपने हिन्दुस्तानी आटोमैटिक नहीं, प्राचीन परम्परा का निर्वहन करने वाले हैं। अरे मुन्ना जब तक घर के आंगन में गेंद बल्ला न खेले तो क्या फायदा। वो अपने बच्चों को दस-बारह साल की उमर में भी ओलम्पिक में भेज सकते हैं हम नहीं। अपन तो सामाजिक व्यवस्था का पालन करने वाले हैं। जैसा घर वैसा ही माहौल बच्चे को स्कूल में मिलना चाहिए। घर में किसी के खेल का मैदान होता है। बताओ होता है। नहीं ना। जब घर में मैदान नहीं हो सकता तो स्कूल में खेल के मैदान की क्या जरूरत। अरे, बच्चों को कंकड़-पत्थर पर भी खेलना सीखना चाहिए। खेल के सामान का स्कूल में क्या काम। अरे भैया सब तुम्हारे बच्चे ही खेल लेंगे तो मास्साब के बच्चे क्या करेंगे।
पंकुल

बला- कई
हती-थी
इते सै उते-इधर से उधर
सुबै- सुबह
भुके- लगाये
सौं-कसम

शनिवार, 9 अगस्त 2008

न इधर के, न उधर के

कहते हैं कभी-कभी ज्यादा समझदारी या यूं कहें चालाकी उल्टी ही पड़ जाती है। अपने छोटे चौधरी को ही लो। सोच रहे थे उत्तर प्रदेश में भी ऐश करेंगे और केंद्र में भी। दोनों हाथों से लड्डू खायेंगे। उत्तर प्रदेश में बिटुवा को मंत्री बनवायेंगे फिर उसे केंद्र में ले जाएंगे। सपना बुरा नहीं था। बाप दादा की खड़ी की वोटों की फसल को नाती-पोते नहीं काटेंगे तो क्या पड़ोसी काटने आयेंगे।
अरे भाई-भतीजावाद का आरोप लगाने वाले तो कुंठित लोग है। जिनके बाप-दादा ने उनके लिये फसल तैयार नहीं की वही चीखते हैं। भाई जी, चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं होगा। छोटा सा उदाहरण सुनो कहानी अपने आप समझ में आ जावेगी। अपने चचे परचून की दुकान करते हैं। सुबह से शाम तक भले ही चबन्नी कमायें लेकिन कमाते जरूर हैं। अब चचे का पड़ोसी कहे कि उसके बेटे को चचा दुकान दे दें तो नाइंसाफी होगी। अरे जो चीखते हैं उनके बेटे इस काबिल ही नहीं तो क्या करें।
खैर बात हो रही थी छोटे चौधरी की। बेचारे को माया मैडम ने न इधर का छोड़ा न उधर का। बहुत अकड़ कर गये थे। क्या सोचा था, वोटर शाबासी देगा। अरे जनाब, बुढ़ापा आ गया इधर से उधर जाते-जाते। अब तक एक जगह टिककर तशरीफ रख दो। शेर को सबा शेर मिल ही गया। मैडम ने पहले एक दरवाजा बंद किया फिर अपने यहां अंगूठा दिखा दिया। छोटे मियां अब दर-दर पर गाते फिर रहे हैं, कोई तो होता मेरा अपना, जिसको हम अपना कह पाते...। भैया ऐसे ही भटकते रहो। जरूरी नहीं एक बार की जुगाड़ हर बार काम आ ही जाए।
पंकुल

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

बेतुकीः जित देखों उत ओर सखा रे, दिखें नाग ही नाग

रात के बारह बजते ही अपने चचे एक कुल्हड़ दूध लेकर जंगल की ओर निकल लिये। सोचा दस-बीस पेड़ों के नीचे एक-एक चम्मच लुढ़का आयेंगे। जैसे ही घर से बाहर कदम बढ़ाया कुल्हड़ खाली हो गया। चचे ने दोबारा कुलहड़ भरा और फिर निकल लिये। जितनी बार चचे बाहर गये उतनी बार कुल्हड़ खाली हो गया। थोड़ी देर बाद उनकी समझ में आ गया जिन्हें वह जंगल में खोजने जा रहे हैं वह उनकी आस्तीन में ही छिपे हैं।
हैप्पी नाग पंचमी।
खैर, जंगल के नाग भले ही दुर्भाग्यशाली हों लेकिन अपने नागों का भाग्य चरम पर है। लोगों को अप्रत्यक्ष लाभ देने वाले नाग नहीं चाहिये। यहां तो साक्षात नागराज चाहिये। हकीकत में तो सतयुग से पहले का सा समय जान पड़ता है भैये। अपन ने सुना है कि नाग देवता कभी आदमी तो कभी दूसरा जीव बन जाते थे। आज के नाग तो परमानेंट इंसान बन गये हैं। कब किसको डस लें पता नहीं। नागों ने भी खूब तरक्की की है। जंगल छोड़कर महलों में रहने लगे हैं। और तो और रोजाना दूध-मलाई चट कर रहे हैं। वो जमाने लद गये जब नाग सिर्फ कच्चा दूध पीते थे। अब तो दिन में दूध और रात में....। आज का नाग डसता नहीं है। अपने सभी चेलों को मलाई बांटता है। हुई न समाज की तरक्की। खुद जिओ और औरों को भी जीने दो का इससे बढ़िया उदाहरण कोई हो सकता है। देवता बैठे हैं एक तरफ से सरकारी भक्त आता है तो दूसरी तरफ से प्राइवेट भक्त। सरकारी भक्त को मलाई चाहिये और प्राइवेट भक्त को दूध पैदा करने के लिए और गोरखधंधे। नाग ने दोनों की सेटिंग कराई और हो गयी दोनों की तरक्की। आज के नाग की क्वालिटी विष नहीं, सेटिंग है। जिसके पास जितने भक्त उतना बड़ा। जितनी अच्छी सेटिंग उतना प्रभावशाली। अरे, ऐश की मत पूछो। भक्तों की गाड़ियां आगे-पीछे डोलती हैं और देवता इठलाते झूमते मस्त घूमते हैं। पहले लोग दूर भागते थे अब पैरों पर गिर पड़ते हैं। हमने तो बड़े-बड़े नाग देखे हैं जी। कोई राष्ट्रीय राजधानी की सेटिंग रखता है तो कोई प्रदेश की राजधानी की। कहीं मंत्री-संत्री पहरे पर खड़े हैं तो कइयों को भक्त विदेश की यात्रा करा रहे हैं। यहां दूध को लुढ़काना नहीं पढ़ता। जिसके पास दूध है वह भी मजे में और जिसके पास नहीं वह भी मजे में।
पंकुल

सोमवार, 4 अगस्त 2008

बेतुकीः मुद्दों की हो गयी बरसात

बधाई हो। दो-चार बार बधाई हो। ऊपर वाला जब भी देता है तो छप्पर फाड़ कर ही देता है। कमल वालों के हाथ से एक मुद्दा छिना नहीं कि दूसरा आ गया। किस्मत अच्छी है भाई जी। ऐसे ही लगे रहे तो लाल वाले कृष्ण जी का सपना भी साकार हो जाएगा। बहुत दिनों से रात को सपने आ रहे हैं। अब गद्दी मिली कि अब मिली। सपने में कई बार तो शपथ भी ले लिये होंगे।
खुदा ने बिल्लियों को भी पेट दिया है तो कभी-कभी तो छींके में कंकड़ मारेगा ही। पहले महंगाई का मक्खन फैलाया तो कभी आतंकवाद की रबड़ी जैसा मुद्दा झोली में डाल दिया। लाल वाले कृष्ण जी पर लगता है भोले नाथ भी मेहरबान हैं। जम्मू कश्मीर में ऐसी आग लगायी कि कमल की झोली में वोट ही वोट नजर आने लगे।
भैया, पर सावधान रहना। सामने भी नटखट मनमोहना है। लाल वाले कृष्ण की किस्मत अच्छी है तो नटखट तो किस्मत पर ही जी रहे हैं। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा कि गद्दीनशीं होंगे लेकिन बिल्ली के भाग्य से छींके ही छींके टूट गये। अब फिर भैया मेरा मैदान में डटा है। जब तक गांधी माता-गांधी भैया में आस्था है तब तक कुछ भी हो सकता है। भगवान उनका भला करे और हमारा भी। हम ऐसे ही वोट देते रहें और वो संसद में बिकते और खरीदते रहें।

पंकुल

बेतुकीः अब आयेगी छोटे चचा को नानी याद

भगवान सब देखता है। हमने आज तक दुनियां में कुछ देखा ही नहीं। पड़ोसी आया जब चाहा, मारा और भाग गया। हम थोड़ा चीखे, चिल्लाये फिर चुप। यूं कहें अपन को मालूम है कि भाई मेरा मारेगा इसीलिये चुपचाप आंख बंद करके पिटते रहे। पिटना हमारी फितरत है। वैसे भी अपन को इस तरह की लड़ाई पसंद ही नहीं। पड़ोसी में दम होता तो सामने आकर धुनता। अरे दस मारेगा तो हम भी मुरदार नहीं। एक -आध थक्का तो मार ही देंगे। ज्यादा चपड़-चपड़ करने से काम भी कहां चलने वाला। हम तो हम, भाई अपुन के बड़े चचा की भी दम निकलती है। भले ही शेर की तरह दहाड़ें, पर अंदर तो चूहे सरीखे ही हैं। भाया, घर में घुसकर जब उनकी दम निकाल दी तो हम तो वैसे ही एक गाल पर चांटा खाकर दूसरा आगे कर देते हैं।
लेकिन भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। अपन ने सुना भी है, जो दूसरों के लिये गड्ढा खोदता है भगवान उसकी व्यवस्था कर ही देता है। पहले बड़े चचा को मजा चखाया अब छोटे चचा के यहां डंडा बजा दिया। अपन तो सिर्फ समझा ही सकते हैं। कई बार कहा, आदमी को देखकर दोस्ती करो। पर नहीं। मजे तो दूसरे के घर में आग लगाने में आते हैं। छोटे चचा भी कौन कम हैं। उन्हें भी पीठ में ही छुरा भोंकना आता है। चीखेंगे हिन्दी-चीनी भाई-भाई और कब लड़ाई शुरू कर दें पता नहीं।
एक पुरानी कहावत है, चोर-चोर मौसेरे भाई। हो सकता है अपन के दोनों पड़ोसियों में मौसीजात रिश्ता हो। रिश्ता एक जैसा तो फितरत भी एक सी ही होगी। और तो और, अपने के बड़े चचा अभी भी चीख रहे हैं। भैया पाकिस्तान सुधर जाओ। सुधर जाओ वरना...। वरना क्या भैया पूंछ उखाड़ लोगे। जब तुम्हारे घर में आग लगायी तब कुछ नहीं कर पाये अब क्या आसमान से तारे तोड़ लाओगे। खैर, जब इतने बड़े-बड़े लोग कुछ नहीं करते तो हमारा क्या दोष है। हो सकता है बड़े लोग कुछ करते ही नहीं हों। इस बहाने अपन भी बड़ों की लाइन में तो खड़े हो जाएंगे।
पंकुल

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

शब्द

मेरे शब्द
जिन्हें मैं रचता
सदा नये आकार देता
जिनकी पहचान के लिये
अपने कर्तव्य का पालन करता
वही मेरे अस्तित्व पर
अब अंगुली उठाते हैं
शब्द
जो मेरा दर्पण थे
कोरे कागज पर बिखरकर
मेरी उपस्थिति का आभास
जो हर पल कराते थे
वही मेरे अस्तित्व पर
अब अंगुली उठाते है।
मेरे शब्द।।
पंकज कुलश्रेष्ठ

बचपन

जो खो गया कहीं
किसी नुक्कड़ या चौराहे पर वो
मेरा बचपन था
मिट्टयों के ढेर
और रेत के घरौंदे
जिन्हें तोड़कर खुद बनाया
इक पल रोया फिर मुस्कराया
वो मेरा बचपन था
बिल्लियों और बाबा का डर
परियों का लोक
आसमां के तारे और चांद
उन्हें पाने की हठ
वो मेरा बचपन था
घर के आंगन में स्वच्छंद विचरण
तितलियों के पीछे दौड़
न भूख का ख्याल न कोई आडम्बर
वो मेरा बचपन था
झूठ और सच का
तोल न मोल
खो गया किसी नुक्कड़ या चौराहे
पर वो मेरा बचपन था।।
पंकज कुलश्रेष्ठ

बुधवार, 30 जुलाई 2008

चलो देश ने तरक्की तो की

बड़े भाई, अपन के हिन्दुस्तान ने तरक्की कर ली। घबराओ मत, तरक्की में अपना कोई योगदान नहीं है। हमने आज तक कुछ किया ही नहीं। सब कुछ पड़ोसी ही कर जाते हैं। अपने यहां के गरीबों को ही नहीं, गरीब की साइकिल को भी पड़ोसी ने हटवा दिया। अपन की दर्जन भर से ज्यादा सरकारे गरीबी हटाते-हटाते अमीर हो गयीं। अपने सैकड़ों नेता गरीब से अमीर होते गये। लेकिन गरीब की गरीबी नहीं गयी। छुटभैये नेता से लेकर सरकारी आदमी तक मोटरों में इतराने लगे पर वो वेचारा साइकिल पर चलता रहा। सुबह मजदूरी पर निकला तो साइकिल, शाम को घर लौटा तो साइकिल। साइकिल पर झोला लटकाया और चल दिये। जहां मन आया साइकिल रखी और मस्त। अब घूम कर दिखाओ। एक फोन घुमाया नहीं भागते नजर आओगे।
ये काम कर सकती थी कोई सरकाऱ। नहीं न। पड़ोसी का भला मानो, अब न कोई गरीब बचेगा और न गरीबी की निशानी । भैये, अपन हर भले काम को आगे बढ़ाने में पड़ोसी के साथ है। पहले हमारे यहां राम-राज का एक हिस्सा भी इन्हीं ने स्थापित किया। याद नहीं। बड़े भुलक्कड़ हो भाई। याद दिलाता हूं। एक जमाना था जब घर के बाहर रखी चीजें भी गायब हो जाती थीं। बस में सामान भूले नहीं कि पार। पर पड़ोसी का राम राज ऐसा आया कि लोगों को घंटो बाद भी सामान जहां का तहां नजर आने लगा। मजाल है आपका ब्रीफकेश कोई छू भी ले। ट्रांजिस्टर से लेकर लाइटर तक को कोई हाथ नहीं लगाता था।
मुझे मालूम है आप सोच रहे हो पड़ोसी ही सब करेगा तो हम क्या करेंगे। भाई मेरे, अपन के वर्दीवाले अब गरीबी हटाने में सहयोग करेंगे। कोई साइकिल खरीदेगा तो टैक्स देगा। कोई साइकिल को कहीं ले जाएगा तो टैक्स देगा। जब टैक्स दे-देकर थकेगा तभी तो साइकिल छोड़ेगा।
पंकुल

सोमवार, 28 जुलाई 2008

ये लोग

मैं हंसा तो दुनिया वाले
मुझको गमगीन समझेंगे
जो आंसू झलके आंखों से
को कमजोर कहेंगे
मेरी खामोशी से कम से कम
अफवाहें तो न उड़ेंगीं
लोग मुझे नजरंदाज कर
गुजर जाएं तो भला
मेरी शख्सियत पर लोगों की
अंगुलियां तो न उठेंगी।
पंकज कुलश्रेष्ठ

रविवार, 27 जुलाई 2008

बेतुकीः अपन तो वैसे ही गिरे हैं

गिर गये भैये। बड़े-बड़े तीरंदाज धराशायी हो गये। गये थे क्रिकेटवा खेलने पर मैदान में नाचने लगे। अपने छुटके ने एसी तड़ी लगायी कि धूल फांकते नजर आये। लोग इसे हार कह सकते हैं लेकिन हम हार कर भी जीत गये। अपन तो गिरे हुए हैं तो गिर-गिर कर ही अपनी औकात पर आ जाते हैं। वैसे छोटे भाइयों को ये हमारी तरफ से गिफ्ट है। जाओ जीतो और जाकर दुनिया में नाम कमाओ। छोटों को भी भला कोई हराता है। खेल में हार-जीत का भला कोई महत्व होता है। हम हमेशा जीतेंगे तो हारेगा कौन। हारने वाले से महान दुनिया में कई नहीं होता। अरे सुना नहीं, जो गिरा वही सिकंदर।
हमने तो गिरने की कसम खा रखी है। अपने दूसरे छोटे भाई के सामने चौबीस घंटे गिरे रहते हैं। भैया मेरा जब चाहे तब हमारे घर में घुसकर चांटा मारता है और हम खींसे निपोरते हैं। बड़े भाई का फर्ज अदा करते हुए बंदर की घुड़की दिखा देते हैं। अगली बार बदतमीजी की तो समझ, बुरी तरह पिटाई होगी। छोटा भाई बार-बार गलती करे और हम बार-बार वही घुड़की दिखायें इसी में तो जिन्दगी का मजा है। पहले छोटा भाई कभी-कभी थप्पड़ दिखाता था, अब रोजाना घूंसे जड़ रहा है।
हम तो हमेशा से गांधीवादी रहे हैं। मुन्ना भैया वाले नहीं। जब सामने वाले पर जोर नहीं चले तो चुपचाप एक के बाद दूसरा गाल आगे करते जाओ। चांटे खाओ, और मुस्कराओ। हम तो बस यही याद करते रहते हैं, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है। हमारे टूटने, गिरने की कोई सीमा नहीं है। भाई मेरा मारते-मारते थक जाए तो अलग बात है। घर के अंदर आये मेहमान से हम कुछ नहीं कह सकते। अरे हमारे यहां तो दुश्मन को भी घर में दुलार के साथ बैठाया जाता है। भाई आखिर भाई है। मेहमान भगवान है। ये अलग बात है कि ये भगवान यमराज के रूप में ही आता है। हम तो बस यही कहेंगे, तुम अगर हमको न चाहो तो कोई बात नहीं....
पंकुल

शनिवार, 26 जुलाई 2008

बेतुकीः अपन का दूसरा नम्बर भी छीन लेंगे बड़े भाई

भैये एक बुरी खबर है। मुझे समझ नहीं आ रहा कोई हमारी तरक्की क्यों नहीं देखना चाहता। अरे बड़ी मुश्किल से आबादी बढ़ाने में हम नम्बर एक होना चाह रहे थे। जाने कितने प्रयास नहीं किये आबादी को चीन से आगे करने में। हमारा सपना था जल्द हम नम्बर एक होंगे। वो दिन भी दूर नहीं था जब हमारा सपना साकार होता। पर देखो अमेरिकनों को, अब वो भी दौड़ में आने लगे हैं। अरे अभी शुरूआत की तो क्या, हमें विश्वास है कि हम दौड़ते ही रह जाएंगे और बड़े भाई अमेरिकी नम्बर एक हो जाएंगे। अपने हाथ से दो नम्बर का तमगा भी छिन जाएगा।
आपको यह मसखरी लग रही है। भैया बिल्कुल सच्ची बात है। तेई सौं। तेई सौं का मतलब नहीं जानते, भैया तुम्हारी सौगंध। अपनी सौगंध मैं क्यों खाऊं। आज की दुनिया में किसी का भरोसा नहीं। पता नहीं वो अपने कार्यक्रम में पिछड़ जाएं और हम निपट लें। नहीं, इतना रिस्क नहीं ले सकता। खैर बात चल रही थी अपना औहदा गिरने की। आपको बताये देता हूं, मैंने सुना है इस साल अमेरिकियों ने साठ साल पुराना रिकार्ड तोड़ दिया। इस साल जितने बच्चे अमेरिका में पैदा हुए उतने सिर्फ दूसरे विश्व युद्ध के बाद पैदा हुए थे। इसका साफ मतलब है कि जब-जब अमेरिकी डरते हैं तो आबादी भी बढ़ाना शुरू कर देते हैं।
मुझे तो पहले ही मालूम था बड़े भाई कोई गुल खिला सकते हैं। अरे पहले हमारे खाने पर नजर लगायी और अब खाने में ही चुनौती देने आ रहे हैं। भैया, हमसे कहा गया दुनिया में महंगाई इसलिये बढ़ रही है क्योंकि हम ज्यादा खाते हैं। हमारे यहां ज्यादा खाद्यान्न खा लिया जाता है। हमारा भरा-पूरा पेट बड़े भाई से देखा नहीं जा रहा। हमें खाता देख उन्हें डर सताने लगा। अरे हम तो अपनी ही कमाई खा रहे हैं। घर में अनाज पैदा करते हैं खा लेते हैं। उनके यहां से कुछ मंगाया तो उन्होंने कौन सा बढ़िया माल भेज दिया। उस पर भी पूरे पैसे दिये, कोई चीज खैरात में नहीं भेज दी। हम गेहूं खायें, चाहें तेल खायें उनको क्या।
हमारी आबादी ज्यादा थी तो हमने कुछ मांगा तो नहीं। आजाद देश में हमने सिर्फ आबादी, महंगाई बढ़ायी। आबादी बढ़ी तो वोट बढ़े और महंगाई बढ़ने पर विपक्षियों के बल्ले-बल्ले। हमने कभी कहीं और बड़े भाई से कुछ मांगा। एक करोड़ की आबादी होते हुई भी कभी बड़े भाई ने ओलिम्पक में अपने तरफ से कोई मैडल भेंट किया। अरे उनका फर्ज बनता था हमें बिना जीते ही गोल्ड मैडल दें। रिजर्वेशन के हिसाब से तो हमें दस-बारह गोल्ड मिलने चाहिये। सुरक्षा परिषद के लिये हम कबसे रिरिया रहे हैं लेकिन बड़े भाई ने कभी अपना फर्ज अदा किया। हमने खाना खाया तो उन्होंने मुहं बिचका लिया। भैये हम जानते हैं वो आबादी भले ही न बढ़ायें लेकिन अपने खाने पर तो उनकी नजर लग ही गयी है।
अरे गनीमत मानो हमने अपने यहां के हजारों लाल अपने बड़े भाइयों को बांट दिये वरना अपन भी किसी से कम नहीं। अपने भारत यानि मनोज कुमार ने चीख-चीखकर बता दिया दुनिया को दशमलव हमने ही दिया। जीरो हमने दिया। तभी तो हर जगह दशमलव और जीरो लगाकर ही अपना काम चला रहे हैं।
पंकुल

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

मेरी पुरानी कविताएं
ये कविताएं मैंने लगभग 20 साल पहले लिखी थीं। आज कुछ कविताएं यहां लिखने का मन हुआ तो लिख दीं। बीस साल के अंतर के बावजूद आज भी यह कविताएं प्रासंगिक हैं।

मुर्दे का इनकार
हमारे पड़ोसी स्वर्ग सिधार गये
पर हमें मुसीबत में डाल गये
जाड़े के मौसम में
शाम को शमशान जाना था
ऊपर से तुर्रा ये
हमें ही सारा काम निपटाना था
हमने उन्हें ढोने की योजना बनायी
बगैर कमीशन के गाड़ी मंगवाई
शमशान पहुंचकर उन्हें शुद्ध घी में लपेटा
फिर चंदन पर फेंका
पर ज्यों ही आग लगायी
उठ खड़े हो गये मुर्दा भाई
जलने से इनकार कर दिया
बोले तुमने बिना कमीशन गाड़ी मंगवाई
हम कुछ नहीं बोले
तुमने शुद्ध घी बिखेरा
हमने कुछ न कहा
पर, जब चंदन का बना बिछोना
मेरा मन न माना
इस जमाने में वह भला
इतनी शुद्धता कैसे सहता।

पंकज कुलश्रेष्ठ
नेता
वो देखकर मेरी तरफ
मुस्कराया बेहिचक
खादी लिपटे हाथों को जोड़ते हुए बोला
आप मेरे अन्नदाता
हमारी ही पार्टी को वोट डालना
मेरे नादान मन ने किया प्रश्न
कौन सी पार्टी श्रीमन्
बोला वो संगमरमर का बुत
अब जिसमें हैं हम
पहले वाली में दम घुटता था
साक्षात् यम लोक का माहौल था
मेरे नादान मन ने फिर टोका
महाशय, पहले यहां नरक था
साक्षात यम ने किया शंका समधान
आपका सशंकित होना व्यर्थ है श्रीमन्
इसकी चिंता हम पर छोड़िये
हम जहां होंगे वही स्वर्ग है
फिर खींसे निपोरता वह झूठ का पिटारा
कहीं और, किसी और को
समझाने अपनी औकात
हो गया अदृश्य वो नेता।

पंकज कुलश्रेष्ठ

कुत्ता फरार है
हमारे पड़ोसी का कुत्ता खो गया
सारे मौहल्ले में बावेला हो गया
अकड़ू-मकड़ू सभी आये
अपनी-अपनी व्यथा सुनाये
बात-बात में समय कट गया
बस एक प्रश्न अटक गया
कुत्ता खोया, या भागा है
सभ्य था या आवारा है
जब तक इन प्रश्नों के उत्तर न सूझे
कौन भला कुत्ते को ढूढे
तभी नजर आये रगड़ू जी
हमने कहा समस्या हल हो गयी सबरी
यही बूझेंगे सभी प्रश्नों के उत्तर
बैठा दो रगड़ू आयोग पुत्तर
एक माह बात रगड़ू आये
साथ में मोटी पोथी लाये
पूरी का बस सार यही था
कुत्ता खो गया है
वह भाग भी सकता है
वह सभ्य था
थोड़ा आवारा भी हो सकता है
उसी दिन नाले की सफाई में
एक सड़ी गली लाश मिली
जिसकी एक-एक निशानी बता रही थी
यह वही कुत्ता है
पर रपट के अंत में यही लिखा था
कुत्ता फरार है।

पंकज कुलश्रेष्ठ

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

बेतुकीःईमानदारी जिंदाबाद

भगवान का लाख-लाख शुक्र है ईमानदारी जीत गयी। बड़े-बड़े लोगों ने कोशिश की लेकिन भाई लोग अपने ईमान पर फेवीकोल के पक्के जोड़ से चिपके रहे। अंतरात्मा से आवाज आयी और सरकार बच गयी। अब भैया अंतरात्मा सिर्फ ईमानदारी पर बोलती है। लोग भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार का नारा दे रहे हैं लेकिन अपन ईमानदारी से सिद्ध कर सकते हैं ईमानदारी जिन्दाबाद रही। अगर ईमानदारी नहीं होती तो भला एक करोड़ रुपया लेकर माननीय कैसे पहुंच जाते। भैया एक करोड़ की औकात होती है। इतनी गड्डियां देखकर अच्छे-अच्छों की जीभ लपलपाने लगती है। ये अलग बात है कि नीलामी की बोली 25 करोड़ प्रति नग के हिसाब से लग रही थी तो माननीय एक करोड़ लेकर ही क्यों पहुंचे। बाकी का 74 करोड़ अंतरात्मा के पास पहुंच गया। वैसे खरीरददारों को सोचना चाहिए सिर्फ एक करोड़ तीन लोगों को देंगे तो झगड़ा तो होगा ही। ऐसे मामलों में एडवांस बुकिंग नहीं होती है। यहां तो तुरंत खलास किया जाता है। भला माननीय एडवांस से काम कैसे चला लेते। जैसा कर्म करेगा वैसा फल मिलेगा। ईमानदारी का दूसरा उदाहरण अपने हरियाणा के माननीय का है। कभी हाथ तो कभी हाथी से खेल रहे बेचारे की अंतरात्मा सही समय पर कचोटने लगी। हाथ और हाथी में भले ही बड़ी ई की मात्रा का अंतर है लेकिन हाथी गन्ना खाता है, पेड़ पौधे खाता है और हाथ हरे-हरे नोट बांटता है। हाथी पीठ पर सवारी करा सकता है लेकिन हाथ आखिर हाथ होता है। एक पुरानी कहावत है, अक्ल बड़ी कि भैंस। लेकिन कभी कोई यह भी कह सकता है हाथ बड़ा कि हाथी।खैर अंत भला तो सब भला। यूं भी कह सकते हैं बिके तो बिके बचे भी खूब। या समझ लो ईमान-धरम की लोगों ने खा ली। कसम से ऐसे ही लोग बिकते रहे तो ईमान को कभी खतरा हो ही नहीं सकता। एक बात और सिद्ध हो गयी, जिसकी लाठी उसकी भैंस। भैंस के बारे में एक और कहावत है, गोबर अगर मिट्टी से उठेगा तो लेकर ही उठेगा। अरे यह मत पूछना इस कहावत में भैंस कहां है। भैया अगर भैंस नहीं होगी तो गोबर कहां से आयेगा।चलो ईमानदारी का आखिरी उदाहरण और सुन लो। कमल वालों का भरा-पूरा खानदान ईमानदारी की भेंट चढ़ गया। बेचारे हैं भी बहुत धरम-करम वाले। हमेशा मंदिर, धरम की बात करते हैं और धरम के लिये ही सब कुछ कर लेते हैं। बकिया लोगों की क्या कहें, उनका ईमान तो जहां तहां वहीं है। वैसे सरकार को अन्य उद्योगधंधों की तरह इस खरीदो-बेचो धंधे का राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिये। हर साल दो-चार बार इसकी जरूरत पड़ सकती है। इसके लिये अपने समाजवादियों से रिक्वोएस्ट की जा सकती है कि वह इस कार्यक्रम की जिम्मेदारी ले लें।
पंकुल

सोमवार, 21 जुलाई 2008

बेतुकीःकाश हम भी मोहल्ला सांसद होते

भाई मेरे हमें अपनी और अपने जैसे करोड़ों लोगों की औकात अच्छी तरह मालूम है। अपन सांसद तो क्या सभासद का चुनाव भी नहीं जीत सकते। औकात भले ही गिरी हो लेकिन सपना किसी से कम नहीं। भैये हमारा भी सपना है कोई भोज पर बुलाये। फाइव स्टार होटल न सही मोहल्ले के ढाबे पर ही दावत दे दे। छप्पन भोग न सही दाल रोटी ही खिला दे।
हमारे जैसे भुक्खड़ों के लिये सरकार को संविधान ही बदल देना चाहिए। हर मोहल्ले में एक हो और उस संसद में हम जैसों को बिना जीते ही शामिल किया जाए। एक बार मोहल्ला संसद में हमें घुस जाने दो। हर हफ्ते अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाये तो हमारा भी नाम नहीं। कम से कम हफ्ते में दो-तीन दिन खाने-पीने की जुगाड़ तो बनेगी। सौ-पचास रुपये मिल गये तो बच्चों की मिठाई आ जायेगी। अब मोहल्ला संसद में कोई पच्चीस-पचास करोड़ रुपये देने से तो रहा। जैसी औकात वैसा ही सपना देखना चाहिए। मोहल्ला संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने के मुद्दे मैं बताये देता हूं। मोहल्ले के किसी कुत्ते के काटने की प्रवृत्ति को मुद्दा बनाया जा सकता है। कुत्ता नहीं काटता यह भी अपने आप में बड़ा मुद्दा हो जायेगा। अरे भाई कुत्ता है तो उसका फर्ज बनता है कि कुछ लोगों को काटकर अपने दांत पैने करे। ये तो रही कुत्ते की बात। मुद्दा और भी कोई बनाया जा सकता है। आपके मोहल्ले में कुत्ते नहीं हैं तो उनको आयात करने की डिमांड की जा सकती है। पड़ोस में अच्छे कुत्ते हैं तो उनकी बुराई की जा सकती है। आप सोच रहे होंगे कि भला ये भी कोई मुद्दे हैं।
भैये मुद्दे ऐसे ही होते हैं। बड़े लोगों में भी ऐसे ही मुद्दों का चलन है। जिन्हें परमाणु का मतलब नहीं मालूम वो परमाणु करार पर टिप्पणी कर रहे हैं। भाई जान हमें अपने मोहल्ले की चिंता नहीं तो वो अपने देश की चिंता क्यों करें। हमारे मोहल्ले के लोगों को जब कुत्ते के काटने और न काटने से कोई मतलब नहीं तो वो परमाणु करार से मतलब क्यों रखें। मुद्दा तो सिर्फ विरोध का है। जब बड़ी औकात वाले खाने और जेब भरने का काम कर रहे हैं तो भाई अपन को क्यों डांटते हैं। हमारा भी हक मोहल्ला संसद बनाने का। आओ संकल्प लें, बड़े लोगों को नक्शे कदम पर चलकर अपनी तरक्की करने का। विश्वास, वफा, धर्म, ईमान सिर्फ कुत्तों के लिये छोड़ दो।
पंकुल

शनिवार, 19 जुलाई 2008

बेतुकीः पुलिस करा सकती है डिलीवरी

नमस्तेब्लागरों के परिवार में मेरा स्वागत है। अरे भाई आप लोग मेरा स्वागत नहीं कर रहे तो मैं खुद ही अपना स्वागत कर लेता हूं। अभी तक आपके सामने जो कुछ भी पहुंचा वो प्रैिक्टस करते करते ही चला गया। असली बकवास तो अब लिख रहा हूं। आशा है इस बकवास के आप आदी हो जायेंगे। चलो अब पढ़ भी लो।
एक ख़बर - प्रदेश सरकार रात में डिलीवरी पर ग्रामीण डाक्टरों को देगी ईनाम।
....भाई मेरे सरकार के पास आखिर पैसा ही कितना है जो डाक्टरों को ईनाम देगी। सरकार ने अपने देव स्वरूप, हृदय सम्राट डाक्टरों को क्या भूखा-नंगा समझ रखा है। अरे सरकारी हुए तो क्या अच्छे-अच्छों से ज्यादा हैं। एक भी आपरेशन किसी नसिंग होम में कर दिया तो हो गये बारे-न्यारे। जब अपनी दुकान पर बैठते हैं तो दो-चार घंटे में ही हफ्ते भर की तनख्वाह निकाल लेते हैं। दवा वाले जो भेंट पूजा कर दें वो ब्याज समझो। सरकार रात में काम करने पर ईनाम देने की बात कर रही है, यहां दिन में भी काम करने के पैसे नहीं चाहिए। अरे, वो बेचारे तो धर्मार्थ सेवा में भी जुगाड़ से नहीं चूकते। नौकरी एक शहर में करते हैं और रहते सौ-दो सौ मील दूर हैं। सरकार को शर्म आनी चाहिए लालच देने के लिये। अरे खैरात के लिये काम क्यों करें।
प्राइवेट डाक्टरी करते-करते ये हालत हो गयी है कि मुर्दे से भी पैसा वसूल लें। अगर सरकार को ईनाम देना ही है तो बिना काम के ईनाम देकर दिखाये। ईनाम भी घर पहुंचना चाहिये। किसी डाक्टर पर इतनी फुर्सत नहीं कि ईनाम के लिये लाइन में खड़ा हो। वैसे सरकार को ये फैसला करने से पहले कई बार सोचना था। ये कदम सरासर देश की आबादी बढ़ाने वाला है। भैया मेरे गरीबों को आखिर जीने का हक किसने दे दिया। इन्हें जनसंख्या बढ़ाने का अधिकार कतई नहीं दिया जाना चाहिए। सरकार खुद ही जनसंख्या बढ़ाने के फेर में है। जितनी आबादी, उतना मुनाफा।सरकार को अगर गरीब महिलाओं का इतना ही ख्याल है तो डिलीवरी का जिम्मा पुलिस को दिया जा सकता है।
यह ईनाम भी पुलिस के लिये मुकर्रर किया जा सकता है। पुलिस के लिये एक शर्त भी लगाई जा सकती है कि डिलीवरी घर पर ही करायी जाये। भैये पुलिस का डंडा जब चलेगा तो बच्चे को छोड़ो उसका भी बच्चा खुद चला आयेगा। सरकार का काम भी हो जायेगा और पुलिस वालों को भी काम मिल जायेगा। इसी लिये दास जी ने कहा हैः-जहां काम आये डंडा वहां काम न करे सुई।
पंकुल