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शनिवार, 23 अगस्त 2008

बेतुकीः बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे कन्हाई

कन्हैया मजे में हो। मंदिर-मंदिर बगल में बांसुरी दबाये मुस्कराते हुए एक टांग पर खड़े-खड़े बहुत आनंद आ रहा है। सुबह शाम माखन मिश्री के भोग लग रहे हैं। महीने में छत्तीस बार छप्पन भोग चख रहे हो। हमसे तो कह दिया कर्म किये जा फल की इच्छा मत करना। अरे, अपन को फल तो क्या सूखी रोटी भी नसीब नहीं हो रही। हमें फल की कोई इच्छा भी नहीं। छप्पन भोग तुम्हीं खाओ। हमारे खाते में सुबह-शाम एक भोग ही कर दो, हम तो उसी में खुश हो जाएंगे।
वैसे जनाब, आप एक ही टांग पर क्यों खड़े हो जाते हो। शायद इसलिये कोई बुलाये तो तुरंत आ जाओ। द्वापर में भी तुम्हारी आदत ऐसी ही थी। मनसुखा ने आवाज लगायी और चल दिये। पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता होती तो मैया घर से निकलने काहे देती।
तुम पर आज कल फिल्मी दबाव बन रहा है कि एक बार फिर आकर देखो। कोई कह रहा है, एक बार आजा, आजा, आजा। कुछ कहते हैं कन्हैया, कन्हैया तुम्हें आना पड़ेगा। तुम्हें बुलाने वाले दोनों ही तरह के लोग हैं। कुछ चाहते हैं लाखों कंसों का नाश हो जाए। लेकिन कंस चाहते हैं कि एक बार आकर तो देखो। तुम अपने दरवाजे पर खड़ी लाखों की भीड़ को देखकर कन्फ्यूज मत हो जाना। ये तो इसलिये आते हैं कि थोड़ी बहुत श्रद्धा भक्ति का प्रसाद उनकी तरफ भी खिसक जाए। ये लोग सुदामा से इंसप्राइड हैं। अपने साथ दोना भर प्रसाद लाते हैं। हर बार तो तुम्हारे पर रुक्मणि नहीं बैठी रहेंगी। कभी तो एक-दो इलाइची दाना खाओगे ही।
मेरी व्यक्तिगत सलाह है तुम भूलकर भी यहां मत आना। भाया भले ही तुम्हारे मंदिरों में करोड़ों की सम्पत्ति है। तुम्हारे हाथ में सोने-चांदी की बांसुरी और सिर पर मुकुट रहता है लेकिन बाहर आते ही ये सब गायब हो जाएगा। तुम्हारे नाम पर इंकम टैक्स बचाने वाले अपना-अपना माल ले उड़ेंगे।
तुमने तो सिर्फ गाय चराना सीखा था। अब तुम्हारी गाय माता तुम्हारे भर के लिये दूध दे दें तो गनीमत मानना। बेचारी का खुद ही ठिकाना नहीं रहा। हमने तो भैंस मौसी का इंतजाम कर रखा है। किसी गलतफहमी में मत रहना। दूसरों की भैंस खोलना आसान काम नहीं। हर झगड़े के बाद पूछना पड़ता है तुम्हारी भैंस खोली थी क्या। तुम जब छोटे थे तो पढ़ाई का टंटा नहीं था। अब तो सुबह पांच बजे उठते ही मैया पांच किलो का बस्ता पींठ पर टांग देगी। तुम्हारी आदत थोड़ी डिफर थी। घर से निकले और पहुंच गये क्रिकेट खेलने। गोपियों की मटकी फोड़ी और मक्खन चुराकर खा लिया। पहले तो मैया को गाना सुनाकर काम चल जाता था। तुमने कह दिया मैया मोरी मैं न ही माखन खायो और मैया मान गयीं। अब तो पुलिस अंकल का डंडा चलेगा तो बिना खाये ही बोल दोगे, मैंने ही माखन खायो। तुम्हारा नाम तो हर थाने की लिस्ट में आ जाएगा। हर तीज- त्यौहार पर थानेदार साहब के चक्कर लगाने पड़ेंगे। एक दो जमानती भी साथ रखना पड़ेगा।
बाकी तुम तो बहुत समझदार थे। अर्जुन को इतना बड़ा उपदेश दे डाला। अब आकर कंस मामा के थप्पड़ मारने की भी कोशिश न करना। एक साथ दर्जनों धारएं लग जाएंगी। अपने यहां सारा काम अब कानून ही करता है। कानून की आंखों पर हमने पट्टी बांध दी है। ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे जमाने में गांधारी ने पट्टी बांध ली थी। गांधारी ने हमेशा देश का भला ही चाहा, वैसे ही हम भी चाहते हैं। अगर गांधारी न होती, तो धृतराष्ट्र अपने प्रिय दुर्योधन के पुत्र मोह में कैसे फंसते। अगर दुर्योधन न होते तो महाभारत न होती। महाभारत न होती तो तुम्हें गीता का उपदेश देने का बेहतरीन मौका कहां मिल पाता। तभी तो तुमने कहा था, जो हो रहा है, अच्छा है। होने वाला है वह भी अच्छा होगा। अब यहां आकर अपने गीता के उपदेश का अक्षरशः पालन करके दिखाना।
बहुत मुश्किल में पड़ जाओगे कन्हाई। हकीकत ये है नाटकों में तुम्हारा रास देखने वाले, तुम्हें गांव, गलियों में रास करने की इजाजत नहीं देंगे। तुम्हारे समय में सब लीगल रहा होगा। अब तो कोई गोपी ही थाने ले जाएगी तुम्हें। रोजाना अखबार में पड़ रहे होगे, प्रेमी की धुनाई। इसमें कई तो तुम्हारे रास से प्रेरित रहे हैं बेचारे।
मैं एक चीज तो भूल गया। तुम्हें ड्राइविंग का बहुत शौक था। तभी तो अर्जुन का रथ ड्राइव करने चले गये। अब तांगा चलाओगे तो थोड़ा बहुत कमा सकते हो। पर इतने भर से छप्पन भोग की जुगाड़ होने से रही। तुमने यमुना में कालिया को निपटाया। हमारे यहां अमिताभ बच्चन ने कालिया की ऐसी-तैसी कर दी। तुम यमुना के कालिया की बात करो तो हमने यमुना को इस काबिल ही नहीं छोड़ा कोई कालिया उसमें रहे।
तुमने अपने जमाने में एक बहुत बड़ी गलती की थी। खुद कहते रहे, आत्मा अजर-अमर है और खुद ही कंस और उसके भाई बंधुओं को मार दिया। हमने सुना है हर बार आत्मा छह गुनी हो जाती हैं। तभी तो तुम्हारे यहां का एक कंस इन सबा पांच हजार साल में लाखों तक पहुंच गया। खुद मोक्ष लेकर चले गये। अब कंस आता रहा और तुम सिर्फ मंदिर में, पोस्टर में मुस्कराते रहे। तुम आओ तो अपनी बांसुरी भी छोड़ आना। अब सड़क चलते लोग महिलाओं के गले की चेन नहीं छोड़ेते, तुम्हारी बांसुरी एक दिन भी नहीं बचेगी। न न। बांस वाली भी मत लाना। हम नहीं चाहते कोई तुम्हें नीरो कहे। नीरो को तो जानते ही होगे। कहा जाता है, रोम जल रहा था और नीरो चैन की बांसुरी बजाता रहा। हम इतने भी खुदगर्ज नहीं। हमें तो मुकेश दादा की याद आ रही है। मुझे तुमने कुछ भी न चाहिए, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। तुम तो भैया मंदिर में बैठे-बैठे अपना जन्मदिन एन्ज्वाय करो। सुबह शाम छप्पन भोग खाओ।
आखिरी शिकायत। तुमने सैकड़ों लोगों का संडे खराब कर दिया। बेचारे लगे हैं तुम्हारी सेवा शुश्रुभा में। चलो, सब चलता है। हैप्पी बर्थडे अगेन।
पंकुल

सोमवार, 18 अगस्त 2008

बेतुकीः चचा, कहां चले

बड़े बे आबरू होकर तेरे कूचें से हम निकले, अब तो बस ये सोच रहें हैं कि इधर निकलें कि उधर निकलें। अपने पड़ोसी मुशर्रफ चचा की हालत कुछ ऐसी ही नजर आ रही है। बेचारे, अपने घर में बेगाने हो गये। ऐसे भी कर्म नहीं किये कि पड़ोसी दो रोटी के लिये भी पूछे। इसीलिये कहा गया है, हमेशा आस-पड़ोस में शराफत से काम लेना चाहिए।
अपने दास चाचा तो इतने शरीफ हैं कि भाभी के चले जाने पर महीनों उनका अड़ोस-पड़ोस में ही चाटने-चटोरने में बीत जाता है। लेकिन मियां मुशर्रफ हैं कि माने ही नहीं। अरे, हमारे घर (आगरा) आये तो बहुत समझाया। भैया मान जाओ। पड़ोसी से ज्यादा कभी कोई काम नहीं आता। पर नहीं। ऐंठ ऐसी जैसे अमृत पीकर आये थे। सोचा था जब तक जीयेंगे सरकार में जीयेंगे। पड़ोसी छोड़ो, घर में भी किसी को नहीं छोड़ा। अच्छे-अच्छे तीसमारखां मैदान छोड़कर भागते नजर आये। अब खुदकी हालत खस्ता है। वैसे मियां मुशर्रफ की फितरत ही कुछ अजीब सी है। 1998 में बेचारे नवाज ने उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया और एक साल में उन्हें ही खिसका दिया।
मियां अगर ठीक-ठाक काम किये होते तो अपन दिल्ली वाली हवेली में ही एक कमरा रहने के लिये दे देते। चक सुबह-शाम खाते और रात में सो जाते। पर तुम्हारा क्या भरोसा कब अंगुली पकड़कर पौंचा पकड़ लो। तुम्हें चचा कहकर कमरा दें और तुम चौके में चले आओ। न बाबा न। इतना बड़ा रिस्क नहीं लिया जा सकता। हां, बड़े चचा तुम्हारा साथ दे सकते हैं। बहुत खुसर-फुसर करते थे दोनों। उनके यहां जाकर सफेद घर में बाहर वाला कमरा मियां तुम्हारे लिये मुफीद रहेगा। सेनाध्यक्ष रहे हो, सैनिक की तरह काम करो। हमारे घर में नहीं, आस-पास भी नहीं रहना। वहीं चले जाओ, मजे में रहोगे। जब तक बड़े चचा कि सरकार है, तुम्हारे भी आनंद रहेंगे।
एक छोटा सा सुझाव याद रखना चचा। अबकी पड़ोसियों से ठीक-ठाक व्यवहार रखना। अबकी नहीं बनी तो घर का कोना तो दूर, बाहर भी कोई नहीं फटकने देगा। अच्छा, अलविदा। भगवान करे, फिर कभी न मिलें।
पंकुल

रविवार, 17 अगस्त 2008

मैं कुत्ता (1). .. पूंछ सीधी करके नाक नहीं कटानी


मैं कुत्ता हूं। अपने दास जी पिछले पांच सौ साल से रिसर्च करके नाक में दम किये हैं। पता नहीं हमारी निजी जिन्दगी में ताक-झांक करके उन्हें क्या मिल गया। चलो कोई बात नहीं। जब उन्होंने ताक-झांक ही कर दी है हम ही उनकी बात लिखे देते हैं।
मैं कुत्ता हूं। मेरी सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक साख तुम मनुष्यों से कुछ ज्यादा है। मेरा उल्लेख प्राचीन पुराणों में भी है। तुम्हारे इष्ट धर्मराज युधिष्ठर जब स्वर्ग गये तो मैं अकेला ही उनके साथ था। देवी-देवताओं के साथ भी मुझे अक्सर स्थान मिल ही जाता है। तुम जैसे स्वार्थी मनुष्य मेरे काले वर्ण की पूजा करते हैं। मैंने आज तक किसी मनुष्य की पूजा नहीं की।
मुझे सबसे ज्यादा परेशानी तब होती है जब लोग मेरी पूंछ के पीछे पड़ जाते हैं। तुम लोगों ने कहावत बना ली है कुत्ते की पूंछ टेढ़ी की टेढ़ी ही रहेगी। अरे हमने आज तक कभी आपकी मूंछ के बारे में कहा। हमारी पूंछ से आपको क्या लेना-देना। पूंछ हमारी शान है। जिसकी पूंछ जितनी घुमावदार और टेढ़ी समझो कुत्ता समाज में उसका उतना ही महत्व। दर्जनों कुत्ते उसके आगे-पीछे घूमते फिरते हैं। जैसे तुम लोगों के यहां लम्बे कुर्तों वालों की जमात होती है। जिसका जितना लम्बा कुर्ता उतना बड़ा नेता। तुम लोग अपने कुर्ते का साइज घटाते-बढ़ाते रहते हो। हमारे यहां यह सुविधा सामान्य तौर पर उपलब्ध नहीं है। वैसे जल्द ही ब्यूटी पार्लर खुल सकते हैं जहां हमारी पूंछ को टेढ़ा किया जा सकता है। ये तो तुम भी जानते हो हमारी पूंछ को सीधा भले ही नहीं किया जा सके, पर टेढ़ा करने में कोई परेशानी नहीं है।
ऐसा नहीं, हमारे यहां सीधी पूंछ वाले नहीं होते। कुछ बदकिस्मत सीधी पूंछ किये रहते हैं। ऐसे कुत्ते हमेशा दूसरों के पीछे ही घूमते रहते हैं। चापलूसी उनकी आदत में शुमार हो गया है। दरअसल जबसे हम कुत्ते आबादी के नजदीक आते जा रहे हैं मनुष्यों के दुर्गुण हममें समाते जा रहे हैं। कुत्तों को दो रोटी डाल कर तुम उन्हें दुम हिलाऊ बना लेते हो। ऐसे कुत्तों का हमने बायकाट करने का फैसला किया था लेकिन मतदान में वह प्रस्ताव गिर गया। जब दुम हिलाऊ कुत्तों की बात चली तो चिल्ल-पौं शुरू हो गयी। दुर्भाग्य तो ये रहा कि तमाम ऊंची पूंछ किये फिरने वाले कुत्ते भी बंद कमरे में दुम हिलाते ही नजर आये।
तुम्हारे मनुष्य समाज में यह प्रथा बहुत ही पुरानी है। तुम लोगों ने इस काम को सर्विस टैक्स बना लिया है। दलाली तुम्हारी आदत है। किसी की थाने में रिपोर्ट लिखवायी तो दलाली। किसी का ट्रांसफर करवाया तो दलाली। किसी की नौकरी लगवायी तो दलाली। किसी को ठेका दिलवाया तो भी दलाली। तुम्हारी इसी आदत के चलते गांव और मोहल्ले के कुत्तों ने दरवाजे-दरवाजे जाकर रोटी खाने की आदत डाल ली है। मैं सदियों से देख रहां हूं, गांव में कुत्ते दरवाजे पर रोटी के लिए जीभ निकाले बैठे ही रहते हैं। इन कुत्तों का अपना तो कोई ईमान नहीं। जब चाहे तब कोई इनकी दुम पर पैर रखकर चला जाए। बस दिखाने के लिये रात में थोड़ी सी भौं-भौं कर देते हैं। इसी भौं-भौं की दलाली में रोटी खाते-खाते इनकी उम्र बीतती चली गयी है।
शहरों में तो आपने और भी नरक कर दिया है। चेन से बांध कर जहां चाहा वहां खड़ा कर दिया। हमारी तो कोई निजी जिन्दगी ही नहीं रही। बच्चे-बच्चे तक हमारी दुम को पकड़ कर जहां चाहें वहां खींच ले जाते हैं। ये सब मालूम है सिर्फ इस पापी पेट के लिये कुछ कुत्ते कर रहे हैं। घर बैठे खाने की आदत जो पड़ गयी है। इन्हें अपनी दुम की भी चिन्ता नहीं रही। हमें बहुत बुरा लगता है कुछ मनुष्य दूसरों को कुत्ते की दुम की गाली देते हैं। हमने भी अपने यहां कहना शुरू कर दिया है मनुष्य की मूंछ। आप हमारी पूंछ से छेड़छाड़ बंद करो हम आपकी मूंछ को बख्श देंगे।
तुम्हें सच्ची बतायें। भले ही हम जैसे ऐंठीली गोल-गोल दुम वालों की बकत कुत्तों ने कम कर दी हो लेकिन तुम्हारी कसम आज भी जब कोई गबरू जवान निकल जाता है तो उसकी बात ही निराली होती है। और क्या बतायें, सड़क पर जब वो इठला-इठला कर चलता है तो ओर चारों कुत्ता बालाओं की लाइन लग जाती है। उसकी पूंछ की ओर देखकर तो तुम मनुष्य भी घबरा जाते हो। (क्रमशः)
पंकुल

शनिवार, 16 अगस्त 2008

बेतुकीः न बहना नजर आयीं न भैया

अपने चचा पिछले चौबीस घंटे से बहन और भैया को खोजते रहे पर न तो बहन नजर आयी न भैया। अरे गलत मत समझना। चचा की बहन ने तो उन्हें राखी बांधी। अपुन की बहन ने भी राखी के साथ खूब घेबर खिलाया पर लखनऊ वाली बहन का भाई नहीं आय़ा। भूल गये भैया को। याद करो। थोड़ा और दिमाग को खुजलाओ। नहीं आया पकड़ में। चलो अपन ही बके देते हैं।
एक समय की बात है, कमल वाले लाल हुआ करते थे। जब हाथी वाली बहन पर मुसीबत का पहाड़ टूटा तो भाई पहुंच गये राखी बंधवाने। भाई धर्म निभाया और गिफ्ट में दे दी सरकार। तब बहन मुसीबत में थी। अब बहना को भाई की याद नहीं आयी। अभी क्या पिछले कई सालों से बहन को भाई की याद नहीं आ रही। भाई पर हर कोई चपत लगाने के मूड है और बहन का दिल पिघल ही नहीं रहा।
एक तरफ हाथ साइकिल पर बैठा और चल दिया। बहना है न तो चाचा चौधरी को भाव दिया न ही कमल भैया को। चाचा ने बहुत मगजपच्ची की लेकिन दाल नहीं गली। बहना, कमल भैया पर तो तरस खाओ। अपने बडे़ वाले लाल से तो कम्पटीशन मत करो। बेचारे कितनी सर्दियों से नजर गड़ाये बैठे हैं। रोजाना बेचारे गाना गाते हैं, ये कुर्सी बहुत अच्छी लगती है। लेकिन कुर्सी है कि मानती ही नहीं। सोचा था कुर्सी वाले कन्हैया को तंगड़ी लगाकर खुद मटरगश्ती करेंगे। पर क्या मालूम था अपनी ही बहना भांजी मार देगी। बहना है कि मानती ही नहीं। जो कुर्सी भैया को अच्छी लगी वही बहना को चाहिए। अपने चचा सोच रहे थे कि शायद भैया फिर बहना को कुर्सी दान कर दें। और बहना को दान के लिए रक्षा बंधन से बढ़िया दिन क्या हो सकता था। पर न बहना नजर आई न भैया। चलो..हम इंतजार करेंगे...
पंकुल

गुरुवार, 14 अगस्त 2008

बेतुकीः आजादी की जवानी मुबारक

बधाई हो, अपन का लोकतंत्र 61 साल का जवान हो गया। अरे भैया जब च्यवनप्राश खाया है तो बूढ़ा काहे होगा। आप क्या सोच रहे थे बेचारा बुढ़ा गया हैं। भाई मेरे, जब अपने प्रधानमंत्री जवान हैं। भावी प्रधानमंत्री युवा और जोशीले हैं तो लोकतंत्र कैसे बुजुर्ग हो सकता है।
जबसे आजाद हुए जवानी बढ़ती चली जा रही है। जवान हैं तभी तो जिसे चाहे मार सकते हैं। किसी की मजाल तो हमारी जवानी के सामने आये। जिसकी जमीन चाहे छीन लें और जिसकी चाहें लौटा दें। हम स्वतंत्र हैं। सड़क पर जब सांड की तरह घूमेंगे तो जिसे चाहे उठा कर फेंक देंगे। हमारी जवानी का यही एक उदाहरण नहीं है। हमने बहुत जतन किये जवानी को बरकरार रखने के लिये।सड़क पर किसी का एक्सीडेंट हो, हम जाम लगायेंगे। देश में किसी की सरकार बने या जाये, हम जाम लगायेंगे। महंगाई बढ़े तो भी जाम लगायेंगे। जाम ही नहीं लगायेंगे बसों में आग लगायेंगे। ट्रेन में तोड़फोड़ करेंगे। सड़क तोड़ेंगे। लोगों के सर फोड़ेंगे। हमारा नारा है, हम अपनी आजादी को हरगिज भुला सकते नहीं, सर फोड़ सकते हैं लेकिन सर बचा सकते नहीं।
हमने आजादी के हर साल में आबादी को बढ़ाया। अगर स्वतंत्र नहीं होते तो आबादी कैसे बढ़ाते। किसी की मजाल जो हमसे कहे कि आबादी रोको। अरे ये तो सब भगवान की देन है। जितने बच्चे उतना आराम। कोई सड़क पर पालिश करेगा तो कोई जेब तराशेगा। अगर हमने आबादी नहीं बढ़ायी होती तो ये काम भला कौन करता। अरे हमें भी दूसरे देशों से पालिश, मालिश करने वाले बुलाने पड़ते। भला हो आजादी का।
आजादी है तभी तो हमारे वोट से जीतने वाले नोट के सौदे करते हैं। आजादी है तभी तो ठेके देने के सौदे होते हैं। जो जितने दाम देगा उतना नाम कमायेगा। आजादी न होती तो हर साल सड़क कैसे टूटती। हर नौ-दस साल में पुल कैसे धराशाई होते। सड़क नहीं टूटती, पुल धराशाई नहीं होते तो बेरोजगारी बढ़ जाती। कितनाबढ़िया इंतजाम है, हर साल सड़क बनाओं और बेरोजगारी मिटाओ। देश में पैसे की अगर कोई कमी होती तो भला दजर्नों मल्टीनेशनल कम्पनी मालामाल कैसे होतीं। हमने कोका कोला, पेप्सी पी-पीकर ही कई देशों का भला कर दिया।
क्या जरूरत है हम गांधी, सुभाष, लाजपत राय, भगत सिहं को याद रखें। ये वेचारे खुद जिन्दा होते तो सभासद का चुनाव नहीं जीत पाते। पार्टी टिकट लेने के लिये भी जुगत लगानी पड़ती। देखना पड़ता कहां कास्ट वोट कितना है। आजादी को जवान बनाये रखना आसान काम थोड़े ही है। सुबह झंडा फहरा दिया अब शाम को छुट्टी एन्ज्वाय करो।
हैप्पी इन्डिपेंडेंस डे।
पंकुल

रविवार, 10 अगस्त 2008

बेतुकीः गोल्ड मैडल तो हमई जीत लाते

चचा, काहे दीदे फाड़-फाड़ कर टुकुर-टुकुर टीवी में घुसत जात हो। क्या सोच कर बैठे हो, आसमान से मैडल टूट-टूट कर गिरेंगे। अपने चीनी चचा हर खिलाड़ी को विदा में एक-एक गोल्ड मैडल देंगे। सब आयेंगे और हंसते-हंसते गोल्ड मैडल हमें दिखायेंगे। चचा यूं ही सदियों तक इंतजार करते रहे। शायद दस-बीस, पचास साल बाद तुम्हारी हसरत पूरी हो जाए।
वैसे गोल्ड मैडल तो हमई जीत लावते। पर का बतायें पंद्रह साल के भये तो घर बालन ने कहो खेल आवौ। मैदान में गये तो पहले हाकी खेलन लगे। हाकी को डंडो उठाओ पर का बतावें हम डंडा लये भागत रहे और गेंद इतर-बितर चली गयी। भागत-भागत एक तरफ से गेंद आयी और हमाये पांव पर आइके ऐसी लागी कि नानी याद आये गयी। हमऊने जोर से डंडों मारो पर वोऊ पांव से जा टकराओ ससुर। पांव फूल कै ऐसो मोटो है गयो कि बला दिनन तक बिस्तर पर ही पड़े-पड़े मोटे है गये।
ठीक भये तो सोचो फुटबाल ही खेलें। हाकी में तो डंडा संभाले कि बाल यई न पता चलो। फुटबाल भली हती। बाये पांव से मारत-मारत इते सै उते ले जात रहे। कबहऊ अपयें गोल में मारी कबहऊ पराये। दूसरे दिना गये तो काऊ ने हमैं खेलन ही नाय दऊ। दादा बोले बचुआ दौड़ लगाये लेओ करो। हमऊ सुबै-सुबै निकल लये दौड़न को। पहले एक मौहल्ला में कुत्ता पीछे पड़ि गये। हमऊ कम नाय हते, और तेज दौड़त गये। पीछऊ देखत रहे कऊं कुत्ता-फुत्ता नाय आय जाए। हम पीछई देखत रहि गये और दूसरी तरफ से कालौ कुत्ता टांग चबाये गयो। हम फिर बिस्तर पर लेटि गये। डाक्टर नै चौदह दिना जो इंजेक्शन भुके भैया बहुत पीर भई। जब ठीक भये तो चाचा बोले लला तुम बच्चा हो कछु दिना बाद खेलन जइयो। और बड़े भये। बड़े कालेज में पहुंचे। कंचा-अंटा, गिल्ली-डंडा तो जानत ही हते, चिड़िया बल्ला खेलन शुरू कर दयो। भैया का भला खेल है। यों उछलो, त्यों उछलो। दये मारौ चिड़या में बल्ला। चिड़िया लगैऊ तो चोट न आवे। दस-बारह साल में थोड़ा बहुत सीख गये तब तलक मैच खेलत सांस उखड़न लगी। सच्ची चचा, तुमाई सौं सांस न उखड़ती तो एक नाय, दो-तीन मैडल जीत लाते।
चचा ये तो रही पुरानी बात। अब तो आटोमैटिक युग है। पर अपने हिन्दुस्तानी आटोमैटिक नहीं, प्राचीन परम्परा का निर्वहन करने वाले हैं। अरे मुन्ना जब तक घर के आंगन में गेंद बल्ला न खेले तो क्या फायदा। वो अपने बच्चों को दस-बारह साल की उमर में भी ओलम्पिक में भेज सकते हैं हम नहीं। अपन तो सामाजिक व्यवस्था का पालन करने वाले हैं। जैसा घर वैसा ही माहौल बच्चे को स्कूल में मिलना चाहिए। घर में किसी के खेल का मैदान होता है। बताओ होता है। नहीं ना। जब घर में मैदान नहीं हो सकता तो स्कूल में खेल के मैदान की क्या जरूरत। अरे, बच्चों को कंकड़-पत्थर पर भी खेलना सीखना चाहिए। खेल के सामान का स्कूल में क्या काम। अरे भैया सब तुम्हारे बच्चे ही खेल लेंगे तो मास्साब के बच्चे क्या करेंगे।
पंकुल

बला- कई
हती-थी
इते सै उते-इधर से उधर
सुबै- सुबह
भुके- लगाये
सौं-कसम

शनिवार, 9 अगस्त 2008

न इधर के, न उधर के

कहते हैं कभी-कभी ज्यादा समझदारी या यूं कहें चालाकी उल्टी ही पड़ जाती है। अपने छोटे चौधरी को ही लो। सोच रहे थे उत्तर प्रदेश में भी ऐश करेंगे और केंद्र में भी। दोनों हाथों से लड्डू खायेंगे। उत्तर प्रदेश में बिटुवा को मंत्री बनवायेंगे फिर उसे केंद्र में ले जाएंगे। सपना बुरा नहीं था। बाप दादा की खड़ी की वोटों की फसल को नाती-पोते नहीं काटेंगे तो क्या पड़ोसी काटने आयेंगे।
अरे भाई-भतीजावाद का आरोप लगाने वाले तो कुंठित लोग है। जिनके बाप-दादा ने उनके लिये फसल तैयार नहीं की वही चीखते हैं। भाई जी, चीखने-चिल्लाने से कुछ नहीं होगा। छोटा सा उदाहरण सुनो कहानी अपने आप समझ में आ जावेगी। अपने चचे परचून की दुकान करते हैं। सुबह से शाम तक भले ही चबन्नी कमायें लेकिन कमाते जरूर हैं। अब चचे का पड़ोसी कहे कि उसके बेटे को चचा दुकान दे दें तो नाइंसाफी होगी। अरे जो चीखते हैं उनके बेटे इस काबिल ही नहीं तो क्या करें।
खैर बात हो रही थी छोटे चौधरी की। बेचारे को माया मैडम ने न इधर का छोड़ा न उधर का। बहुत अकड़ कर गये थे। क्या सोचा था, वोटर शाबासी देगा। अरे जनाब, बुढ़ापा आ गया इधर से उधर जाते-जाते। अब तक एक जगह टिककर तशरीफ रख दो। शेर को सबा शेर मिल ही गया। मैडम ने पहले एक दरवाजा बंद किया फिर अपने यहां अंगूठा दिखा दिया। छोटे मियां अब दर-दर पर गाते फिर रहे हैं, कोई तो होता मेरा अपना, जिसको हम अपना कह पाते...। भैया ऐसे ही भटकते रहो। जरूरी नहीं एक बार की जुगाड़ हर बार काम आ ही जाए।
पंकुल

मंगलवार, 5 अगस्त 2008

बेतुकीः जित देखों उत ओर सखा रे, दिखें नाग ही नाग

रात के बारह बजते ही अपने चचे एक कुल्हड़ दूध लेकर जंगल की ओर निकल लिये। सोचा दस-बीस पेड़ों के नीचे एक-एक चम्मच लुढ़का आयेंगे। जैसे ही घर से बाहर कदम बढ़ाया कुल्हड़ खाली हो गया। चचे ने दोबारा कुलहड़ भरा और फिर निकल लिये। जितनी बार चचे बाहर गये उतनी बार कुल्हड़ खाली हो गया। थोड़ी देर बाद उनकी समझ में आ गया जिन्हें वह जंगल में खोजने जा रहे हैं वह उनकी आस्तीन में ही छिपे हैं।
हैप्पी नाग पंचमी।
खैर, जंगल के नाग भले ही दुर्भाग्यशाली हों लेकिन अपने नागों का भाग्य चरम पर है। लोगों को अप्रत्यक्ष लाभ देने वाले नाग नहीं चाहिये। यहां तो साक्षात नागराज चाहिये। हकीकत में तो सतयुग से पहले का सा समय जान पड़ता है भैये। अपन ने सुना है कि नाग देवता कभी आदमी तो कभी दूसरा जीव बन जाते थे। आज के नाग तो परमानेंट इंसान बन गये हैं। कब किसको डस लें पता नहीं। नागों ने भी खूब तरक्की की है। जंगल छोड़कर महलों में रहने लगे हैं। और तो और रोजाना दूध-मलाई चट कर रहे हैं। वो जमाने लद गये जब नाग सिर्फ कच्चा दूध पीते थे। अब तो दिन में दूध और रात में....। आज का नाग डसता नहीं है। अपने सभी चेलों को मलाई बांटता है। हुई न समाज की तरक्की। खुद जिओ और औरों को भी जीने दो का इससे बढ़िया उदाहरण कोई हो सकता है। देवता बैठे हैं एक तरफ से सरकारी भक्त आता है तो दूसरी तरफ से प्राइवेट भक्त। सरकारी भक्त को मलाई चाहिये और प्राइवेट भक्त को दूध पैदा करने के लिए और गोरखधंधे। नाग ने दोनों की सेटिंग कराई और हो गयी दोनों की तरक्की। आज के नाग की क्वालिटी विष नहीं, सेटिंग है। जिसके पास जितने भक्त उतना बड़ा। जितनी अच्छी सेटिंग उतना प्रभावशाली। अरे, ऐश की मत पूछो। भक्तों की गाड़ियां आगे-पीछे डोलती हैं और देवता इठलाते झूमते मस्त घूमते हैं। पहले लोग दूर भागते थे अब पैरों पर गिर पड़ते हैं। हमने तो बड़े-बड़े नाग देखे हैं जी। कोई राष्ट्रीय राजधानी की सेटिंग रखता है तो कोई प्रदेश की राजधानी की। कहीं मंत्री-संत्री पहरे पर खड़े हैं तो कइयों को भक्त विदेश की यात्रा करा रहे हैं। यहां दूध को लुढ़काना नहीं पढ़ता। जिसके पास दूध है वह भी मजे में और जिसके पास नहीं वह भी मजे में।
पंकुल

सोमवार, 4 अगस्त 2008

बेतुकीः मुद्दों की हो गयी बरसात

बधाई हो। दो-चार बार बधाई हो। ऊपर वाला जब भी देता है तो छप्पर फाड़ कर ही देता है। कमल वालों के हाथ से एक मुद्दा छिना नहीं कि दूसरा आ गया। किस्मत अच्छी है भाई जी। ऐसे ही लगे रहे तो लाल वाले कृष्ण जी का सपना भी साकार हो जाएगा। बहुत दिनों से रात को सपने आ रहे हैं। अब गद्दी मिली कि अब मिली। सपने में कई बार तो शपथ भी ले लिये होंगे।
खुदा ने बिल्लियों को भी पेट दिया है तो कभी-कभी तो छींके में कंकड़ मारेगा ही। पहले महंगाई का मक्खन फैलाया तो कभी आतंकवाद की रबड़ी जैसा मुद्दा झोली में डाल दिया। लाल वाले कृष्ण जी पर लगता है भोले नाथ भी मेहरबान हैं। जम्मू कश्मीर में ऐसी आग लगायी कि कमल की झोली में वोट ही वोट नजर आने लगे।
भैया, पर सावधान रहना। सामने भी नटखट मनमोहना है। लाल वाले कृष्ण की किस्मत अच्छी है तो नटखट तो किस्मत पर ही जी रहे हैं। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा कि गद्दीनशीं होंगे लेकिन बिल्ली के भाग्य से छींके ही छींके टूट गये। अब फिर भैया मेरा मैदान में डटा है। जब तक गांधी माता-गांधी भैया में आस्था है तब तक कुछ भी हो सकता है। भगवान उनका भला करे और हमारा भी। हम ऐसे ही वोट देते रहें और वो संसद में बिकते और खरीदते रहें।

पंकुल

बेतुकीः अब आयेगी छोटे चचा को नानी याद

भगवान सब देखता है। हमने आज तक दुनियां में कुछ देखा ही नहीं। पड़ोसी आया जब चाहा, मारा और भाग गया। हम थोड़ा चीखे, चिल्लाये फिर चुप। यूं कहें अपन को मालूम है कि भाई मेरा मारेगा इसीलिये चुपचाप आंख बंद करके पिटते रहे। पिटना हमारी फितरत है। वैसे भी अपन को इस तरह की लड़ाई पसंद ही नहीं। पड़ोसी में दम होता तो सामने आकर धुनता। अरे दस मारेगा तो हम भी मुरदार नहीं। एक -आध थक्का तो मार ही देंगे। ज्यादा चपड़-चपड़ करने से काम भी कहां चलने वाला। हम तो हम, भाई अपुन के बड़े चचा की भी दम निकलती है। भले ही शेर की तरह दहाड़ें, पर अंदर तो चूहे सरीखे ही हैं। भाया, घर में घुसकर जब उनकी दम निकाल दी तो हम तो वैसे ही एक गाल पर चांटा खाकर दूसरा आगे कर देते हैं।
लेकिन भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं। अपन ने सुना भी है, जो दूसरों के लिये गड्ढा खोदता है भगवान उसकी व्यवस्था कर ही देता है। पहले बड़े चचा को मजा चखाया अब छोटे चचा के यहां डंडा बजा दिया। अपन तो सिर्फ समझा ही सकते हैं। कई बार कहा, आदमी को देखकर दोस्ती करो। पर नहीं। मजे तो दूसरे के घर में आग लगाने में आते हैं। छोटे चचा भी कौन कम हैं। उन्हें भी पीठ में ही छुरा भोंकना आता है। चीखेंगे हिन्दी-चीनी भाई-भाई और कब लड़ाई शुरू कर दें पता नहीं।
एक पुरानी कहावत है, चोर-चोर मौसेरे भाई। हो सकता है अपन के दोनों पड़ोसियों में मौसीजात रिश्ता हो। रिश्ता एक जैसा तो फितरत भी एक सी ही होगी। और तो और, अपने के बड़े चचा अभी भी चीख रहे हैं। भैया पाकिस्तान सुधर जाओ। सुधर जाओ वरना...। वरना क्या भैया पूंछ उखाड़ लोगे। जब तुम्हारे घर में आग लगायी तब कुछ नहीं कर पाये अब क्या आसमान से तारे तोड़ लाओगे। खैर, जब इतने बड़े-बड़े लोग कुछ नहीं करते तो हमारा क्या दोष है। हो सकता है बड़े लोग कुछ करते ही नहीं हों। इस बहाने अपन भी बड़ों की लाइन में तो खड़े हो जाएंगे।
पंकुल

शुक्रवार, 1 अगस्त 2008

शब्द

मेरे शब्द
जिन्हें मैं रचता
सदा नये आकार देता
जिनकी पहचान के लिये
अपने कर्तव्य का पालन करता
वही मेरे अस्तित्व पर
अब अंगुली उठाते हैं
शब्द
जो मेरा दर्पण थे
कोरे कागज पर बिखरकर
मेरी उपस्थिति का आभास
जो हर पल कराते थे
वही मेरे अस्तित्व पर
अब अंगुली उठाते है।
मेरे शब्द।।
पंकज कुलश्रेष्ठ

बचपन

जो खो गया कहीं
किसी नुक्कड़ या चौराहे पर वो
मेरा बचपन था
मिट्टयों के ढेर
और रेत के घरौंदे
जिन्हें तोड़कर खुद बनाया
इक पल रोया फिर मुस्कराया
वो मेरा बचपन था
बिल्लियों और बाबा का डर
परियों का लोक
आसमां के तारे और चांद
उन्हें पाने की हठ
वो मेरा बचपन था
घर के आंगन में स्वच्छंद विचरण
तितलियों के पीछे दौड़
न भूख का ख्याल न कोई आडम्बर
वो मेरा बचपन था
झूठ और सच का
तोल न मोल
खो गया किसी नुक्कड़ या चौराहे
पर वो मेरा बचपन था।।
पंकज कुलश्रेष्ठ