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सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

बेतुकीः मां लक्ष्मी का सालाना निरीक्षण आज

राम-राम सा। आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं। यह पर्व आप सभी के लिये मंगलमय हो। अब कुछ बेतुकी हो जाए।
दास जी के पुत्र को एक्जाम में दीपावली का निबंध लिखने को दिया गया। बालक मन ने इतना अच्छा निबंध लिख दिया कि मास्टर जी प्रसन्न हो गये। बोले बेटा तुझे बी.एड., पीएचडी करने की कोई जरूरत नहीं। महान पिता की महान संतान, तुम तो लोगों को भाग्य विधाता बनोगे। निबंध इस प्रकार था।
दीपावली मैया लक्ष्मी को मनाने का त्यौहार है। मैया लक्ष्मी बहुत दयालु हैं, कृपालु हैं। वह साल में एक दिन वार्षिक निरीक्षण पर निकलती हैं। सालाना निरीक्षण के लिये उन्होंने अमावस की काली रात को चुना है। इस सालाना निरीक्षण के लिये लोग घरों की सफाई करते हैं। जो अमीर हैं वो हर साल हर कमरे में महंगा वाला डिस्टेंपर करवाते हैं और जो गरीब हैं वो चार साल की गारंटी वाला डिस्टेंपर करवाते हैं। उनसे भी ज्यादा गरीब चूने से काम चलाते हैं। गांवों में लोग गाय-भैंस की पॉटी से भी काम चला लेते हैं। इस प्रक्रिया को ठीक वैसे ही समझा जा सकता है जैसे कोई वरिष्ठ अधिकारी सरकारी दफ्तर में सालाना निरीक्षण पर जाता है। इसके लिये अधिकारी कार्यालय को साफ कराते हैं। कमीशन वाले ठेकेदार से आफिस की पुताई करवाते हैं।
रंगाई पुताई के बाद घर के बाहर खूब सारी लाइटें और झालर लगायी जाती हैं। जब से चाइना वालों को दीपावली के बारे में मालूम पड़ा है उन्होंने 25-30 रुपये की झालर बेचकर बड़ी-बड़ी कम्पनियों की बत्ती गुल कर दी है। ये झालर सामान्य तौर पर सीधे बिजली के खम्भे पर जम्पर डालकर लगायी जाती है। चोरी की बिजली से झालर जलाने का आनन्द ही कुछ और होता है। झालर लगाने के बाद रात को मैया का पूजन किया जाता है। हमारे देश में पुरानी कहावत है, पैसा ही पैसे को खींचता है। इसी लिये लोग मैया के सामने चांदी-सोने के सिक्के रखकर पूजा करते हैं।
दीपावली का महत्व अधिकारी और प्रभावशाली लोगों के लिये विशेष होता है। कई अधिकारी तो साल भर तक आने वाले गिफ्ट का इंतजार करते रहते हैं। जितना बड़ा अधिकारी उतने ज्यादा गिफ्ट। शहरों में अक्सर देखा गया है कि लोग अपने घर में मिठाई का डिब्बा भले ही न ले जाएं पर अधिकारी को खुश जरूर करते हैं। जिस अधिकारी से जैसा काम पड़ता है वैसे ही गिफ्ट उसे दिये जाते हैं। ठेकेदार अपने-अपने विभागों के अफसरों को खुश करने के लिये मिठाई और पटाखे ले जाते हैं। एक बार अफसर खुश तो साल पर बल्ले-बल्ले। इन लोगों को मानना है कि मां लक्ष्मी साल में एक ही दिन के भ्रमण पर निकलती हैं बाकी के 364 दिन तो वह उन्हीं के यहां रहेंगी।
मैया के आने के इंतजार में कुछ लोग अपने घरों के दरवाजे खुले छोड़ देते हैं। इन लोगों के घरों में चोरी हो जाती है तो भी यह समझते हैं कि मैया ने पुराना माल बाहर निकला दिया अब नया भिजवायेगी। यह त्यौहार उन लोगों के लिये बहुत ही बढ़िया है जो जुआ खेलते हैं। मैया ताश के पत्तों से होकर उनके घर का दरवाजा खटखटा देती है।
इस त्यौहार का लाभ उन लोगों को भी है जो किसी न किसी रूप में सरकारी हैं। यही कारण हैं कि अपनी दीपावली मनाने के लिये दूसरों का जेब तराशना जरूरी है। खर्चे बढ़ते हैं तो छापे भी मारने पढ़ते हैं। अफसर को भी घर पर मिठाई चाहिये। उस बेचारे को भी अपने बड़े संतुष्ट करने होते हैं। बिजली वाले चोरी रोकने के लिये बागते हैं। जहां चोरी न हो रही हो वहां जम्पर डालकर चोरी करवाते हैं फिर खुद ही छापा मार देते हैं। इन्हीं लोगों ने कहावत बनायी है चोर से कह चोरी कर और सिपाही से कहो जागते रहे। अक्लमंद लोग साल में एक बार ही इतने गिफ्ट ले लेते हैं कि बाद में जरूरत ही न पड़े क्योंकि दीपावली गिफ्ट भ्रष्टाचार नहीं होता। यह तो सदाचार होता है।पूजा करने के बाद लोग अपने पैसे में खुद आग लगाते हैं और तालियां बजाते हैं। यह काम कालीदास जी से प्रेरणा लेकर किया जाता है। कालीदास जी जिस डाली पर बैठते थे उसी को काटते थे। इस दिन गणेश भगवान की भी पूजा होती है। लोग गणेश जी से कहते हैं कि वह अपने चूहे को समझायें कि वह दूसरे घरों से लक्ष्मी मैया को लेकर आयें।
उपसंहार
इस तरह से साफ है कि दीपावली सभी को खुश करने का दिन होता है। बड़ी-बड़ी कम्पनियां भी अपनी दीपावली मनाने के लिये गिफ्ट पैक भी बाजार में लाती हैं।
पंकुल

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः दास न रहे उदास

भ्रष्टाचार की मूर्ति दास जी नित्यकर्म के बाद जैसे ही चिलमन से बाहर आये चमचे दहाड़ मारते उनकी तरफ दौड़ पड़े। दास जी ने तनिक प्यार से पूछा, भैये चमचों क्या परेशानी है। दो-तीन-चार नम्बर के काम के धनी चमचे ने मुंह खोला, महाराज महंगाई मार रही है। दास जी ने चुटकी ली, काहे, दीवाली की मिठाई नहीं देने का इरादा है। कहां महंगाई है। सुबह से कुल्ला तक नहीं किया हूं और दो दर्जन से ज्यादा भक्त मिठाई दे गये हैं। एक-एक भक्त ने कितना खर्च किया मालूम है, कम से कम पच्चीस-तीस हजार। अरे भाई कोई हमारे लिए कपड़े लाया तो कोई अपनी चाची को खुश कर गया। तुम इतना महंगाई-महंगाई गिड़गिड़ा रहे हो, अभी चार ठौ ठेके नहीं दिलाये तुम्हें। घर में पैसा नहीं तो ठेके वापस कर दो।
लगता है तुम विपक्ष से जा मिले हो। कोई काम-बाम नहीं अफवाहें फैला रहे हो।
एक दूसरे चमचे ने हिम्मत जुटाई। बोला महाराज आपके लिए महंगाई नहीं है लेकिन अफसरों को भी हमई से दीवाली शुभ करनी है। ठेके मिलने के बाद सामान महंगा हो गया। रेत में रेत मिलाने की भी गुंजाइश नहीं बची है। सीमेंट का कट्टा दिखा कर काम चल रहा है। दास जी ने कहा, चमचे इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं है। सरकार किसकी, हमारी। जांच कौन करेगा हम। किसने कहा तुमसे काम करो। ठेका लो और कमीशन भेंट करो। तुम्हारी दीवाली में रौनक रहे और हमारे बच्चे टापते रहें, यह नाही होगा ना।
दास जी ने मुस्कराते हुए समाधान बताना शुरू किया तो चमचे उनके चारों ओर चुपचाप बैठ गये। दास ने भ्रष्ट वचन देना शुरू किया तो सन्नाटा पसर गया। दास जी ने गंभीर मुद्रा में कहा जिस तरह सूरज पूरब से निकलता है यह सत्य है उसी तरह तुम हमारी दीवाली मनवाओगे यह सत्य है। महंगाई बढ़ी कोई बात नहीं, सामान और कम डालो। और मुसीबत आये तो काम ही मत करो। हम हैं न झेलने को। तुम तो बस नोट छापो और हमें दो।
दीवाली साल में एक बार इसलिये आती है जिससे लोग अपने सुख (गिफ्ट) दूसरों को बांट सकें। मिठाई के नाम पर लीगल रिश्वत ले सकें। भगवान ने हमें सरकारी बनाया है। जो सरकारी होता है उसकी दीपावली तुम जैसे चमचे ही मनवाते हैं। भविष्य में ध्यान रखना हर अधिकारी को उसकी औकात के हिसाब से संतृप्त जरूर करना। तुम जैसे चमचों का जन्म ही हम जैसे लोगों के लिये हुआ है। यह कहकर दास जी कमरे में प्रवेश कर गये और चमचे उनकी दीपावली की तैयारी की वाह-वाह करते हुए उठ कर चले गये।
पंकुल

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

लगे रहो राज भाई

राज भाई, यों ही लगे रहना। किसी से डरने की जरूरत नहीं। आखिर किसकी मजाल जो तुम्हारी बिना बाल की मूंछ टेड़ी कर सके। राजेश खन्ना का गाना नहीं सुना, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। छोड़ो बेकार की बातों में, बीत न जाए रैना। तुम तो पुरानी कहावत के सहारे ही जीना। यानि सुनो सबकी और करो मनकी। अरे भाया तुम्हें कौन महाराष्ट्र के बाहर राजनीति करनी है। जितनी सीटें मिलेंगी, महाराष्ट्र में ही मिलेंगी। कुछ नहीं तो कम से कम दस-पांच हजार वोट तो बढ़ेंगे ही। ये चिन्ता उन्हें करने दो जो राष्ट्रीय दुकान चला रहे हैं। तुम्हारी ठेठ महाराष्ट्री दुकान है वही माल बेचो जो बिके। अब गंजों के शहर में कोई कंघे तो बेचेगा नहीं।
राज भाई, अभी तक तो बाहर के आदमियों को मार-मार कर निकाला है। अब सबसे पहले बाहर की भैंसों को लात मारकर निकाल देना। सभी भैंसों का डीएनए टेस्ट करा लेना। किसी के दादा-परदादा भी यूपी., बिहार के निकल आयें तो डंडे सहित बाहर का रास्ता दिखा देना। अपने ब्लड का भी एक बार टेस्ट तो करा ही डालना। पता नहीं कब रेस्ट आफ इंडिया की गाय-भैंस का दूध पी लिया हो। जाने-अनजाने किसी टाफी, चाकलेट में ही बाहर का दूध अंदर चला गया हो। बड़ी दिक्कत हो जाएगी। एक काम और जरूर करना, जितनी भी परचून की दुकान हैं उनमें रके सामान को भी चेक कर लेना। बाहर का बना हो तो आग लगा डालना। अरे कम से कम यूपी और बिहार की दाल, आटा, चावल, मेवा, मिश्री मत खाना। भैया कन्हैया जी को भी मत याद करना, वह भी बेचारे यूपी के ही थे।
अपने घर की छत, दीवार और ईंटों को खुदवाकर एक बार जरूर देख लेना। कहीं उसमें यूपी, बिहारी या बिलासपुरी मजदूर के पसीने की दुर्गन्ध तो नहीं आ रही। अपने चेलों का भी डीएनए जरूर करा लेना, कहीं उनके मां-बाप तो उत्तर प्रदेश, बिहार के नहीं थे। तुम्हें कमस है पूरे महाराष्ट्र में बाहर की कोई निशानी मत छोड़ना। कभी उस ट्रेन में मत बैठना जो इधर से होकर जाती हो। इतना तो देख ही लेना, कहीं उसका ड्राइवर तो बिहारी नहीं है। प्लेन में बैठो तो आस-पास बिहारी को देखते ही ऊपर से कूद जाना। अबकी जब क्रिकेट टीम का कोई खिलाड़ी रन बनाये तो ताली बजाने से पहले उसका प्रदेश जरूर पता कर लेना। तुम्हें कसम है, राज भाई। भूल से अगर इधर की मिट्टी भी मिल जाए तो उसे इधर ही भिजवा देना। कोई बात नहीं, अगर कुछ दिन जेल में भी रहना पड़े तो कोई बात नहीं, ये सब लोग तो तुम्हारी तरक्की से जलने वाले हैं। बेस्ट आफ लक। जिन्दगी भर एक दड़बे में ही रहना।
पंकुल

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः दोस्त वही जो प्रभावशाली

एक समय की बात है, दास जी अपने सरकारी बंगले के गार्डन में ध्यानस्थ बैठे थे। चारों ओर शांत मुद्रा में चमचे उनके इस रूप को देखकर गार्डन-गार्डन हो रहे थे। चारों ओर चमचों की बढ़ती भीड़ देख दास जी ने आंख खोल दीं। प्रसन्न मुद्रा में बोले, चमचों आज क्या समाचार है। एक चमचा बोला महाराज दोस्त और दुश्मन में क्या फर्क है।
दास जी के माथे पर सिलवटें बढ़ गयीं। गहन विचार के बाद बोले चमचे तुम्हारा सवाल अति उत्तम है। पूर्व में महाभारत के समय भी इसी तरह के प्रश्न के चक्कर में अर्जुन परेशान थे। दास जी के मुख से निकलते शब्दों को सुन चमचे कुछ और नजदीक आ गये। दास जी ने कहा दुनिया में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। जिस हाथ से आप साइकिल को फेंक देते हैं वही हाथ साइकिल चलाता भी है। जिस हाथी से अच्छे-अच्छे डरते हैं वह भी दोस्त हो सकता है। राजेश खन्ना ने कहा था, मिथुन चक्रवर्ती ने कहा था। हाथी मेरा साथी। जब हाथी साथी हो सकता है तो दोस्त ही हुआ। ये अलग बात है जब हाथी को पानी पीना हो तो वह हैण्डपम्प से भी पी सकता है। जिस तालाब में कमल के फूल खिलते हैं उसका पानी खत्म भी कर सकता है। हाथी दयालु भी बहुत होता है। वह कभी कमल के राखी भी बांध देता है।
यही कारण है कि हाथी से तालाब में खिल रहे कमल डरते हैं। उन्हें हाथी की दुश्मनी से डर लगता है। डरता हाथ भी है। साइकिल हाथी से तेज नहीं चल सकती। साइकिल को भी हाथी से डर लगता है। इसलिए सब डरने वाले दोस्त होते हैं। साइकिल को हाथ का सहारा तो कमल को हैण्डपम्प का। हाथी जितना पानी पीयेगा उसका थोड़ा बहुत तो तालाब में हैण्डपम्प से भर ही जाएगा। साइकिल अगर गिरी तो हाथ का सहारा मिल ही जाएगा। लेकिन जब हाथी की सांस फूले, वह बीमार सा हो जाए। उसकी वोटें (सांसे) बंद होने लगें तो वह साइकिल की सवारी भी कर सकता है। हाथी को हाथ घास भी खिला देता है।
अचानक के चमचे के जेहन में सवाल कौंधा। महाराज जब सब घालमेल है तो सभी दोस्त क्यों नहीं हो जाते। दास जी वोले, बेटा जब सब बाहर वाले एक हो जाएंगे तो अंदर वाले बाहर जाने लगेंगे। यह तो अटल सत्य है। किसी का कल्याण जब साइकिल पर बैठकर नहीं होता तो वह कमल को देखकर ही आत्मविभोर हो जाता है। एक चमचे ने कहा, महाराज जब हाथी विशाल है तो उससे लोग लड़ते ही क्यों है। दास जी बोले, चमचे। यह दोस्ती और दुश्मनी तो असल में नजरों का फेर ही है। कब बाहर वाला अंदर दोस्ती निभाये यह पता ही नहीं चलता। ऐसे दोस्तों को छुपा रुस्तम कहते हैं। रुस्तम कब छिपकर विभीषण बन जाए पता ही नहीं चलता।
अंत में दास जी बोले, बेटा दोस्त उसको मानना जो प्रभावशाली हो। दुश्मन उसको मानना जो तुम्हारा कुछ बिगाड़ न सके। इस सूत्र पर चले तो बल्ले-बल्ले होगी, वरना...
दास जी के इस गूढ़ वाक्य को सुनकर चमचे वाह-वाह कर उठे।
पंकुल

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

मैं कुत्ता(3)- क्षेत्रवाद हमारी पहचान






दोस्तों बहुत दिनों के बाद मुलाकात हो रही है। हम कुत्तों की आदत ही कुछ ऐसी है कि जहां एक बार पंजों से मिट्टी उड़ाकर बैठे तो झपकी लग ही जाती है। खैर बात हो रही थी हमारी कुत्तानीयत की। अरे जब इंसानों की नीयत को इंसानीयत कहते हैं तो कुत्तों की नीयत को और क्या कहेंगे। हम कुत्ते सदा से क्षेत्रवादी रहे हैं। इसे दूसरी तरह ऐसे भी समझा जा सकता है कि हम कुत्ते विस्तारवादी नहीं होते। एक मोहल्ले से निकलकर हम ज्यादा इधर-उधर भागते ही नहीं है। जब जाते भी हैं तो दूसरे कुत्ते टांग खिंचाई कर देते हैं।


इंसानों में यह सगुण हम से ही ट्रांसफर हुआ। हर कोई अपने ही मोहल्ले में घूमता है। जिस इंसान को जिस विभाग में ठेके लेने होते हैं वह उन्हीं अधिकारियों के आगे पूंछ हिलाता है। जब ठेके लेने के लिये दूरे विभाग में जाता है तो वहां उसकी कुत्ता खिंचाई होती है। मोहल्ले के कुर्ताधारी अपने क्षेत्र में ही भाषण देते हैं,दूसरे क्षेत्र में जाने की हिम्मत कुछ बिरले ही करते हैं। आप लोगों को इस काम में दूसरे कुत्ते सारी इंसानों का सहयोग मिल जाता है। इस मामले में यहां कुत्तानीयत हमारे यहां विशुद्ध है। हमने तो सुना है आप लोगों ने अपनी-अपनी पार्टियों के भी मोहल्ले बना लिये हैं। चलो अच्छा ही है। हमारी व्यवस्था विशेष है और इस व्यवस्था में बुरा मानने वाली कोई बात भी नहीं है। हम अगर इस व्यवस्था, इस अनुशासन को नहीं मानेंगे तो आपकी तरह अव्यवस्था फैल जाएगी। आप लोग तो जहां मन हुआ वहां मोहल्ला नीति का पालन करते हो और जब अपना फायदा हुआ तो तुरंत राष्ट्रव्यापी हो जाते हो। हमारी व्यवस्था से खाने का संकट कभी नहीं आता। हमारे मोहल्ले के लोग जानते हैं किस-किस कुत्ते को खाना देना है। सुरक्षा का संकट भी नहीं आता। कोई हमारे बहन-बेटी की अस्मत पर हमसे बिना पूछे हाथ भी नहीं डाल सकता। पर आप तो जानते ही हो, आखिर हम कुत्ते ही जो ठहरे। कभी-कभी प्रेमालाप के लिये दो मोहल्लों की सीमा तोड़ दी जाती है। यह तो वैसे ही समझो जैसे मैत्री बैठक हो रही हो। हकीकत ये है कि असल कुत्ता हमेशा क्षेत्रवादी होगा। हमें अपने इस क्षेत्रवादी या यूं कहें मोहल्लावादी होने पर हमेशा गर्व है। हमारे यहां मोहल्लावाद इतना शक्तिशाली है कि जातिवाद आता ही नहीं। हम तो ऐसे जानते हैं जैसे टामी नुक्कड़ वाला, कालू हलवाई वाला, राज्जा दारू वाला, भूरा अंडेवाला...। इसमें कोई कोटा भी फिक्स नहीं है। इतना तय है कि भूरा के बच्चे अंडे की ठेल के आस-पास ही घूमेंगे और राज्जा के दारू वालों द्वारा छोड़े गये दोने ही चाटेंगे।
(more)

पंकुल

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

पुज गये महाशय

पुज गये महाशय। सौभाग्य की बात है हर विलुप्त प्राय वस्तु की तरह आपका का भी एक दिन आ ही जाता है। सुबह से इठलाने का आनंद ही कुछ निराला है। शाम हुई और भूखी-प्यासी पत्नी ने जब चंद्रमा को याद किया तो आप साक्षात सिर से पांव तक कांप गये होंगे। जब पत्नी ने आपके पांव छुये होंगे तो आपका रोम-रोम सिहर गया होगा। ऐसा ही होता है। जब अचानक खुशी किसी को मिले तो यह आभास स्वाभाविक है। महाशय, साल भर पर्यावरण दिवस, साक्षरता दिवस , हिन्दी दिवस और न जाने कितने-कितने दिवस मना डालते हैं तब कहीं जाकर यह अनुभूति देने वाला दिवस आता है। कहते हैं, घूरे के दिन भी फिरते हैं। सो अपने और आपके भी हर साल एक दिन ही सही फिर ही जाते हैं। शायद इसी दिन को देखकर किसी ने पति परमेश्वर की कहावत का ईजाद कर दी होगी।
कुछ भाभियों, आंटियों को दिक्कत होती है कि पति के पूजन का दिन तो भगवान ने बना दिया, पत्नी पूजन का क्यों नहीं। भैये उन आंटियों और भाभियों को मेरा नमन। पर कभी सुना है कि सांस लो दिवस मनाया जाए। कोई खाना खाओ दिवस या स्नान दिवस आदि भी कभी मनाता है। यह सारे कार्य नित्य हैं। बेतुकी महा ग्रंथ में भगवन दास जी ने स्पष्ट किया है कि जो चीज नित्य-निरंतर है उसका दिवस मनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिसकी उपलब्धता खतरे में हो उसको याद रखने के लिये साल में एक दिन निर्धारित करना धर्म परक है।
वैसे महाशय, मेरा एक सुझाव है। पुजने की परम्परा तो ठीक पर ज्यादा कड़ाई से पेश मत आना। आप तो एक दिन के परमेश्वर ठहरे, 365 दिन का परमेश्वर भी ज्यादा कड़ाई नहीं बरतता। कहीं ऐसा न हो सौ सुनार की और एक लुहार की। आशय समझ ही लिया होगा। भविष्य में ध्यान रखिये और साल में एक दफा पुजते रहिये।
पंकुल

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

बेतुकीः फिर निपट लिये रावण जी

फिर निपट लिये रावण जी। आपके सालाना निपटान दिवस पर आपके पुतले खूब धू-धू कर जले। अरे आपको साक्षात निपटाने की तो किसी में हिम्मत है नहीं। आपके पुतले को जलते हुए देखकर ही अपन तो पुरुषार्थ दिखा देते हैं।
भाई दसानन किसी जमाने में आपके दस सिर हुआ करते थे। आपने एक ही भूल की और अपने पूरे खानदान को मरवा दिया। हो सकता है आपकी यह गलती इन दस सिरों की वजह से ही हो गयी हो। अब दस-बारह पार्टियों के नेता सरकार बनाने के बाद भी एक जैसा नहीं सोच सकते तो आपके दस सिर कैसे सोच सकते थे। आपके किसी एक सिर ने सोचा होगा और आपने किडनेपिंग की योजना बना डाली। दूसरे सिर को इतना मौका तो दिया होता कि वो भले-बुरे की सोचता।
लंकाधिपति, आप अपनी सरकार चलाने के लिए कैसे सोचते थे। कम से कम इतना तो कर ही सकते हो कि थोड़ा सा ये गुर भी नेताओं को दे दो। नेताओं को आपने किडनेपिंग का गुर तो सिखा दिया। सीता हरण की तरह महिलाओं के अपहरण में भी निपुण बना दिया। मैंने सुना है आपके दस सिरों में एक सिर विद्वान का था। लगता है राम का वाण लगते ही आपके विद्वान सिर मुक्ति मिल गयी। बाकी बचे नौ सिर हर बार छह नये रूप में पुनर्जन्म लेते रहे। तभी तो आज आपके नौ सिरों के करोड़ों रूप पैदा हो गये। आपने लंका में घर बनाया था। अब तो हर शहर, हर गली में आपके नौ सिरों के अवतार पैदा हो गये हैं। सड़क चलते कब कौन सा रावणावतार प्रकट हो जाए पता नहीं।
जैसे आप वेश बदलने में माहिर थे, वैसे ही आपके अवतार भी हैं। कभी वोट की भिक्षा लेने के लिए घर-घर चक्कर लगाते हैं तो कभी किसी और रूप में।
हे रावण। इतनी शिक्षायें आपने दीं तो कम से कम एक शिक्षा और दे देते। आज के मिलीजुली सरकार के युग में एक सिर ऐसा पैदा कर देते जो कम से कम ढंग से सरकार तो चला लेता। हम आपको हर साल मारते रहेंगे। हर साल गली-मोहल्ले में तुम्हारा जुलूस निकालते रहेंगे जब तक तुम पूरे न निपट लो या हमें न निपटा दो। आपको निपटाने के लिए अभी तो राम जी को भी आने की फुर्सत नहीं दिख रही। यह भी हो सकता है इतने सारे रावणों को निपटाने में अकेले श्रीराम को प्राबलम आ रही हो। खैर, जो भी हो, हम तो इंतजार ही करेंगे।
पंकुल

मृग मारीचिका

दुनियां के इस रेगिस्तान में
ये मेरे निसां
आंधी के इक झोंके में
मिट जाएंगे।
फिर रह जायेगी इक सूनी जमीं
और चतुर्दिशा में बढ़ता
अंजान लोगों का काफिला
जो छूना चाहता है
वह मृग मारीचिका
जिसकी तलाश में मैंने
उम्र तमाम की।
और न जाने कितने लोग
दफन हैं इस रेगिस्तान में।
पंकज कुलश्रेष्ठ