pankul

ये तो देखें
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होली का त्यौहार अन्य त्यौहारों से पूरी तरह अलग है। पूरे भारत में जैसे होली मनायी जाती है उससे अलग होती है बृज की होली। बृज में होली के अनेक...
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अब कभी डायबिटीज को मत कोसना। भगवान हर मर्ज का इलाज पहले कर देता है। चीनी पेट्रोल की कीमत पर हुई तो क्या, डायबिटीज रोगियों की संख्या भी तो बढ...
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ये बात मुझसे बेहतर कौन जानता है कि कुत्ता आखिर कुत्ता ही होता है। हम लोगों को कुत्ता इसीलिये कहा जाता है क्योंकि हमारी कोई औकात नहीं होती। ...
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आपने मटर पनीर, कड़ाही पनीर, दम आलू, रोस्टेड चिकन, मटन बिरयानी, मुगलई चिकन, फिश फ्राई, आमलेट, पाव भाजी, चाऊमिन, मसाला डोसा खाया है। बिल्कुल ...
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भादौं की मस्ती मथुरा में पिछले दिनों छायी रही। जन्माष्टमी के बाद आठ सितम्बर को मथुरा के मंदिरों में कृष्ण प्रिया राधा रानी का जन्मदिवस मना...
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पुज गये महाशय। सौभाग्य की बात है हर विलुप्त प्राय वस्तु की तरह आपका का भी एक दिन आ ही जाता है। सुबह से इठलाने का आनंद ही कुछ निराला है। शाम...
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भैये उडन तस्तरी। आपने पुरानी कहावत सुनी है, जो बोले सो कुंडी खोले। अरे पार्टी कार्यालय की कोई समस्या नहीं है इसे आपके यहां बना देंगे। ऐसा भ...
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एक बहुत पुराना गाना है, रास्ते का पत्थर किस्मत ने मुझे बनाया। अपने धरम पाजी बड़े सेड-सेड मूड में यह गाना गा रहे थे। आज उसी तर्ज पर अपना चीक...
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यह बहुत पेचीदा प्रश्न हो सकता है कि इंसान प्राचीन चमचा है या कुत्ता। इस प्रश्न का हल भी मुर्गी पहले पैदा हुई या अंडा सरीखा है। हम तो इतना जा...
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दोस्तों, फोकटियों का मेला शुरू हो गया। अब न रहेगी मंदी और न नजर आयेगी बेरोजगारी। रोजाना दारू पी जाएगी और धड़ल्ले से बेरोजगारी दूर की जाएगी।...
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बुधवार, 30 जुलाई 2008
चलो देश ने तरक्की तो की
ये काम कर सकती थी कोई सरकाऱ। नहीं न। पड़ोसी का भला मानो, अब न कोई गरीब बचेगा और न गरीबी की निशानी । भैये, अपन हर भले काम को आगे बढ़ाने में पड़ोसी के साथ है। पहले हमारे यहां राम-राज का एक हिस्सा भी इन्हीं ने स्थापित किया। याद नहीं। बड़े भुलक्कड़ हो भाई। याद दिलाता हूं। एक जमाना था जब घर के बाहर रखी चीजें भी गायब हो जाती थीं। बस में सामान भूले नहीं कि पार। पर पड़ोसी का राम राज ऐसा आया कि लोगों को घंटो बाद भी सामान जहां का तहां नजर आने लगा। मजाल है आपका ब्रीफकेश कोई छू भी ले। ट्रांजिस्टर से लेकर लाइटर तक को कोई हाथ नहीं लगाता था।
मुझे मालूम है आप सोच रहे हो पड़ोसी ही सब करेगा तो हम क्या करेंगे। भाई मेरे, अपन के वर्दीवाले अब गरीबी हटाने में सहयोग करेंगे। कोई साइकिल खरीदेगा तो टैक्स देगा। कोई साइकिल को कहीं ले जाएगा तो टैक्स देगा। जब टैक्स दे-देकर थकेगा तभी तो साइकिल छोड़ेगा।
पंकुल
सोमवार, 28 जुलाई 2008
ये लोग
मुझको गमगीन समझेंगे
जो आंसू झलके आंखों से
को कमजोर कहेंगे
मेरी खामोशी से कम से कम
अफवाहें तो न उड़ेंगीं
लोग मुझे नजरंदाज कर
गुजर जाएं तो भला
मेरी शख्सियत पर लोगों की
अंगुलियां तो न उठेंगी।
पंकज कुलश्रेष्ठ
रविवार, 27 जुलाई 2008
बेतुकीः अपन तो वैसे ही गिरे हैं
गिर गये भैये। बड़े-बड़े तीरंदाज धराशायी हो गये। गये थे क्रिकेटवा खेलने पर मैदान में नाचने लगे। अपने छुटके ने एसी तड़ी लगायी कि धूल फांकते नजर आये। लोग इसे हार कह सकते हैं लेकिन हम हार कर भी जीत गये। अपन तो गिरे हुए हैं तो गिर-गिर कर ही अपनी औकात पर आ जाते हैं। वैसे छोटे भाइयों को ये हमारी तरफ से गिफ्ट है। जाओ जीतो और जाकर दुनिया में नाम कमाओ। छोटों को भी भला कोई हराता है। खेल में हार-जीत का भला कोई महत्व होता है। हम हमेशा जीतेंगे तो हारेगा कौन। हारने वाले से महान दुनिया में कई नहीं होता। अरे सुना नहीं, जो गिरा वही सिकंदर।
हमने तो गिरने की कसम खा रखी है। अपने दूसरे छोटे भाई के सामने चौबीस घंटे गिरे रहते हैं। भैया मेरा जब चाहे तब हमारे घर में घुसकर चांटा मारता है और हम खींसे निपोरते हैं। बड़े भाई का फर्ज अदा करते हुए बंदर की घुड़की दिखा देते हैं। अगली बार बदतमीजी की तो समझ, बुरी तरह पिटाई होगी। छोटा भाई बार-बार गलती करे और हम बार-बार वही घुड़की दिखायें इसी में तो जिन्दगी का मजा है। पहले छोटा भाई कभी-कभी थप्पड़ दिखाता था, अब रोजाना घूंसे जड़ रहा है।
हम तो हमेशा से गांधीवादी रहे हैं। मुन्ना भैया वाले नहीं। जब सामने वाले पर जोर नहीं चले तो चुपचाप एक के बाद दूसरा गाल आगे करते जाओ। चांटे खाओ, और मुस्कराओ। हम तो बस यही याद करते रहते हैं, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है। हमारे टूटने, गिरने की कोई सीमा नहीं है। भाई मेरा मारते-मारते थक जाए तो अलग बात है। घर के अंदर आये मेहमान से हम कुछ नहीं कह सकते। अरे हमारे यहां तो दुश्मन को भी घर में दुलार के साथ बैठाया जाता है। भाई आखिर भाई है। मेहमान भगवान है। ये अलग बात है कि ये भगवान यमराज के रूप में ही आता है। हम तो बस यही कहेंगे, तुम अगर हमको न चाहो तो कोई बात नहीं....
पंकुल
शनिवार, 26 जुलाई 2008
बेतुकीः अपन का दूसरा नम्बर भी छीन लेंगे बड़े भाई
आपको यह मसखरी लग रही है। भैया बिल्कुल सच्ची बात है। तेई सौं। तेई सौं का मतलब नहीं जानते, भैया तुम्हारी सौगंध। अपनी सौगंध मैं क्यों खाऊं। आज की दुनिया में किसी का भरोसा नहीं। पता नहीं वो अपने कार्यक्रम में पिछड़ जाएं और हम निपट लें। नहीं, इतना रिस्क नहीं ले सकता। खैर बात चल रही थी अपना औहदा गिरने की। आपको बताये देता हूं, मैंने सुना है इस साल अमेरिकियों ने साठ साल पुराना रिकार्ड तोड़ दिया। इस साल जितने बच्चे अमेरिका में पैदा हुए उतने सिर्फ दूसरे विश्व युद्ध के बाद पैदा हुए थे। इसका साफ मतलब है कि जब-जब अमेरिकी डरते हैं तो आबादी भी बढ़ाना शुरू कर देते हैं।
मुझे तो पहले ही मालूम था बड़े भाई कोई गुल खिला सकते हैं। अरे पहले हमारे खाने पर नजर लगायी और अब खाने में ही चुनौती देने आ रहे हैं। भैया, हमसे कहा गया दुनिया में महंगाई इसलिये बढ़ रही है क्योंकि हम ज्यादा खाते हैं। हमारे यहां ज्यादा खाद्यान्न खा लिया जाता है। हमारा भरा-पूरा पेट बड़े भाई से देखा नहीं जा रहा। हमें खाता देख उन्हें डर सताने लगा। अरे हम तो अपनी ही कमाई खा रहे हैं। घर में अनाज पैदा करते हैं खा लेते हैं। उनके यहां से कुछ मंगाया तो उन्होंने कौन सा बढ़िया माल भेज दिया। उस पर भी पूरे पैसे दिये, कोई चीज खैरात में नहीं भेज दी। हम गेहूं खायें, चाहें तेल खायें उनको क्या।
हमारी आबादी ज्यादा थी तो हमने कुछ मांगा तो नहीं। आजाद देश में हमने सिर्फ आबादी, महंगाई बढ़ायी। आबादी बढ़ी तो वोट बढ़े और महंगाई बढ़ने पर विपक्षियों के बल्ले-बल्ले। हमने कभी कहीं और बड़े भाई से कुछ मांगा। एक करोड़ की आबादी होते हुई भी कभी बड़े भाई ने ओलिम्पक में अपने तरफ से कोई मैडल भेंट किया। अरे उनका फर्ज बनता था हमें बिना जीते ही गोल्ड मैडल दें। रिजर्वेशन के हिसाब से तो हमें दस-बारह गोल्ड मिलने चाहिये। सुरक्षा परिषद के लिये हम कबसे रिरिया रहे हैं लेकिन बड़े भाई ने कभी अपना फर्ज अदा किया। हमने खाना खाया तो उन्होंने मुहं बिचका लिया। भैये हम जानते हैं वो आबादी भले ही न बढ़ायें लेकिन अपने खाने पर तो उनकी नजर लग ही गयी है।
अरे गनीमत मानो हमने अपने यहां के हजारों लाल अपने बड़े भाइयों को बांट दिये वरना अपन भी किसी से कम नहीं। अपने भारत यानि मनोज कुमार ने चीख-चीखकर बता दिया दुनिया को दशमलव हमने ही दिया। जीरो हमने दिया। तभी तो हर जगह दशमलव और जीरो लगाकर ही अपना काम चला रहे हैं।
पंकुल
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
ये कविताएं मैंने लगभग 20 साल पहले लिखी थीं। आज कुछ कविताएं यहां लिखने का मन हुआ तो लिख दीं। बीस साल के अंतर के बावजूद आज भी यह कविताएं प्रासंगिक हैं।
मुर्दे का इनकार
हमारे पड़ोसी स्वर्ग सिधार गये
पर हमें मुसीबत में डाल गये
जाड़े के मौसम में
शाम को शमशान जाना था
ऊपर से तुर्रा ये
हमें ही सारा काम निपटाना था
हमने उन्हें ढोने की योजना बनायी
बगैर कमीशन के गाड़ी मंगवाई
शमशान पहुंचकर उन्हें शुद्ध घी में लपेटा
फिर चंदन पर फेंका
पर ज्यों ही आग लगायी
उठ खड़े हो गये मुर्दा भाई
जलने से इनकार कर दिया
बोले तुमने बिना कमीशन गाड़ी मंगवाई
हम कुछ नहीं बोले
तुमने शुद्ध घी बिखेरा
हमने कुछ न कहा
पर, जब चंदन का बना बिछोना
मेरा मन न माना
इस जमाने में वह भला
इतनी शुद्धता कैसे सहता।
पंकज कुलश्रेष्ठ
वो देखकर मेरी तरफ
मुस्कराया बेहिचक
खादी लिपटे हाथों को जोड़ते हुए बोला
आप मेरे अन्नदाता
हमारी ही पार्टी को वोट डालना
मेरे नादान मन ने किया प्रश्न
कौन सी पार्टी श्रीमन्
बोला वो संगमरमर का बुत
अब जिसमें हैं हम
पहले वाली में दम घुटता था
साक्षात् यम लोक का माहौल था
मेरे नादान मन ने फिर टोका
महाशय, पहले यहां नरक था
साक्षात यम ने किया शंका समधान
आपका सशंकित होना व्यर्थ है श्रीमन्
इसकी चिंता हम पर छोड़िये
हम जहां होंगे वही स्वर्ग है
फिर खींसे निपोरता वह झूठ का पिटारा
कहीं और, किसी और को
समझाने अपनी औकात
हो गया अदृश्य वो नेता।
पंकज कुलश्रेष्ठ
कुत्ता फरार है
हमारे पड़ोसी का कुत्ता खो गया
सारे मौहल्ले में बावेला हो गया
अकड़ू-मकड़ू सभी आये
अपनी-अपनी व्यथा सुनाये
बात-बात में समय कट गया
बस एक प्रश्न अटक गया
कुत्ता खोया, या भागा है
सभ्य था या आवारा है
जब तक इन प्रश्नों के उत्तर न सूझे
कौन भला कुत्ते को ढूढे
तभी नजर आये रगड़ू जी
हमने कहा समस्या हल हो गयी सबरी
यही बूझेंगे सभी प्रश्नों के उत्तर
बैठा दो रगड़ू आयोग पुत्तर
एक माह बात रगड़ू आये
साथ में मोटी पोथी लाये
पूरी का बस सार यही था
कुत्ता खो गया है
वह भाग भी सकता है
वह सभ्य था
थोड़ा आवारा भी हो सकता है
उसी दिन नाले की सफाई में
एक सड़ी गली लाश मिली
जिसकी एक-एक निशानी बता रही थी
यह वही कुत्ता है
पर रपट के अंत में यही लिखा था
कुत्ता फरार है।
पंकज कुलश्रेष्ठ
मंगलवार, 22 जुलाई 2008
बेतुकीःईमानदारी जिंदाबाद
पंकुल
सोमवार, 21 जुलाई 2008
बेतुकीःकाश हम भी मोहल्ला सांसद होते
हमारे जैसे भुक्खड़ों के लिये सरकार को संविधान ही बदल देना चाहिए। हर मोहल्ले में एक हो और उस संसद में हम जैसों को बिना जीते ही शामिल किया जाए। एक बार मोहल्ला संसद में हमें घुस जाने दो। हर हफ्ते अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाये तो हमारा भी नाम नहीं। कम से कम हफ्ते में दो-तीन दिन खाने-पीने की जुगाड़ तो बनेगी। सौ-पचास रुपये मिल गये तो बच्चों की मिठाई आ जायेगी। अब मोहल्ला संसद में कोई पच्चीस-पचास करोड़ रुपये देने से तो रहा। जैसी औकात वैसा ही सपना देखना चाहिए। मोहल्ला संसद में अविश्वास प्रस्ताव लाने के मुद्दे मैं बताये देता हूं। मोहल्ले के किसी कुत्ते के काटने की प्रवृत्ति को मुद्दा बनाया जा सकता है। कुत्ता नहीं काटता यह भी अपने आप में बड़ा मुद्दा हो जायेगा। अरे भाई कुत्ता है तो उसका फर्ज बनता है कि कुछ लोगों को काटकर अपने दांत पैने करे। ये तो रही कुत्ते की बात। मुद्दा और भी कोई बनाया जा सकता है। आपके मोहल्ले में कुत्ते नहीं हैं तो उनको आयात करने की डिमांड की जा सकती है। पड़ोस में अच्छे कुत्ते हैं तो उनकी बुराई की जा सकती है। आप सोच रहे होंगे कि भला ये भी कोई मुद्दे हैं।
भैये मुद्दे ऐसे ही होते हैं। बड़े लोगों में भी ऐसे ही मुद्दों का चलन है। जिन्हें परमाणु का मतलब नहीं मालूम वो परमाणु करार पर टिप्पणी कर रहे हैं। भाई जान हमें अपने मोहल्ले की चिंता नहीं तो वो अपने देश की चिंता क्यों करें। हमारे मोहल्ले के लोगों को जब कुत्ते के काटने और न काटने से कोई मतलब नहीं तो वो परमाणु करार से मतलब क्यों रखें। मुद्दा तो सिर्फ विरोध का है। जब बड़ी औकात वाले खाने और जेब भरने का काम कर रहे हैं तो भाई अपन को क्यों डांटते हैं। हमारा भी हक मोहल्ला संसद बनाने का। आओ संकल्प लें, बड़े लोगों को नक्शे कदम पर चलकर अपनी तरक्की करने का। विश्वास, वफा, धर्म, ईमान सिर्फ कुत्तों के लिये छोड़ दो।
पंकुल
शनिवार, 19 जुलाई 2008
बेतुकीः पुलिस करा सकती है डिलीवरी
एक ख़बर - प्रदेश सरकार रात में डिलीवरी पर ग्रामीण डाक्टरों को देगी ईनाम।
....भाई मेरे सरकार के पास आखिर पैसा ही कितना है जो डाक्टरों को ईनाम देगी। सरकार ने अपने देव स्वरूप, हृदय सम्राट डाक्टरों को क्या भूखा-नंगा समझ रखा है। अरे सरकारी हुए तो क्या अच्छे-अच्छों से ज्यादा हैं। एक भी आपरेशन किसी नसिंग होम में कर दिया तो हो गये बारे-न्यारे। जब अपनी दुकान पर बैठते हैं तो दो-चार घंटे में ही हफ्ते भर की तनख्वाह निकाल लेते हैं। दवा वाले जो भेंट पूजा कर दें वो ब्याज समझो। सरकार रात में काम करने पर ईनाम देने की बात कर रही है, यहां दिन में भी काम करने के पैसे नहीं चाहिए। अरे, वो बेचारे तो धर्मार्थ सेवा में भी जुगाड़ से नहीं चूकते। नौकरी एक शहर में करते हैं और रहते सौ-दो सौ मील दूर हैं। सरकार को शर्म आनी चाहिए लालच देने के लिये। अरे खैरात के लिये काम क्यों करें।
प्राइवेट डाक्टरी करते-करते ये हालत हो गयी है कि मुर्दे से भी पैसा वसूल लें। अगर सरकार को ईनाम देना ही है तो बिना काम के ईनाम देकर दिखाये। ईनाम भी घर पहुंचना चाहिये। किसी डाक्टर पर इतनी फुर्सत नहीं कि ईनाम के लिये लाइन में खड़ा हो। वैसे सरकार को ये फैसला करने से पहले कई बार सोचना था। ये कदम सरासर देश की आबादी बढ़ाने वाला है। भैया मेरे गरीबों को आखिर जीने का हक किसने दे दिया। इन्हें जनसंख्या बढ़ाने का अधिकार कतई नहीं दिया जाना चाहिए। सरकार खुद ही जनसंख्या बढ़ाने के फेर में है। जितनी आबादी, उतना मुनाफा।सरकार को अगर गरीब महिलाओं का इतना ही ख्याल है तो डिलीवरी का जिम्मा पुलिस को दिया जा सकता है।
यह ईनाम भी पुलिस के लिये मुकर्रर किया जा सकता है। पुलिस के लिये एक शर्त भी लगाई जा सकती है कि डिलीवरी घर पर ही करायी जाये। भैये पुलिस का डंडा जब चलेगा तो बच्चे को छोड़ो उसका भी बच्चा खुद चला आयेगा। सरकार का काम भी हो जायेगा और पुलिस वालों को भी काम मिल जायेगा। इसी लिये दास जी ने कहा हैः-जहां काम आये डंडा वहां काम न करे सुई।
पंकुल