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रविवार, 14 सितंबर 2008

बेतुकी - बहुत याद आती है तुम्हारी

कसम से, तुम्हारी बहुत याद आती है। बिल्कुल हर्ट से कह रहा हूं। यों भी कह सकता हूं, तुम्हारी याद में आंसू बहा रहा हूं। अपने प्रियजनों की तरह हर साल तुम्हारी याद करता हूं। दर्जन, दो दर्जन लोगों से तुम्हारी तारीफ भी करता हूं। पर मुकेश का एक गाना मेरे रग-रग में बसा हुया है। जो चला गया उसे भूल जा। मैंने इसी लिए तुम्हें हमेशा भूलने की कोशिश की। मैं जानता हूं जाने वाले कभी लौट कर नहीं आते। पर रस्मों-रिवाज भी टाले नहीं जा सकते हमने आज भी यही कहा, ओ जाने वाले हो सके तो लौट कर आना।
इन्हीं रस्मो-रिवाज के बीच जब हमें चार लोगों के बीच भषणियाना पड़ा तो बहुत डिफीकल्टी फील हुआ। पर हमने भी शुरूआत से ही जो कहा, सभी वैरी गुड-वैरी गुड कहते नजर आये। हमने शुरूआत की, आई लव हिन्दी। नेचुरियली हिन्दी, हिन्दुस्तान की लेंग्वेज है। हम सभी लोगों को हिन्दी को प्रमोट करना ही चाहिए। कम से कम एक दिन तो हम हिन्दी की याद में बिता ही सकते हैं। आई फील, हिन्दी में डेली काम करना परेशानी का सबब हो सकता है। आज हमें विश्व में तरक्की करनी है तो अंग्रेजी को भी उतना ही सम्मान देना होगा। बट, ऐसा नहीं कि अंग्रेजी बोलने से हिन्दी का अस्तित्व खत्म हो जाएगा।
इसी बीच वहां बैठे मेरे अजीज ने मेरा समर्थन किया। बोले, कम से कम अपने मजदूरों से बात करते वक्त तो हमें हिन्दी में ही बात करनी चाहिए। तभी एक भाई बोले,सर क्या बतायें, हिन्दी बहुत ही फनी लेंग्वेज है। मैंने तो अपने बच्चों को भी कहा है कि हिन्दी जरूर सीखें। मेरी बिटिया बता रही थी ट्रेन को लौह पथ गामिनी कहते हैं। मीटिंग में बैठे सभी दोस्त एक साथ बोले व्हाट फनी। आओ चलो अब मीटिंग को खत्म कर दिया जाए।
लास्ट में वी आल लव हिन्दी। जोर से कहो, वी आल लव हिन्दी।
थैन्क्यू।
और अंत में, मैं जब इंटर में पढ़ता था तो मेरे एक मित्र ने दो पंक्तियां सुनायी थीं। इन पंक्तियों के लेखक से अनुमति सहित यहां प्रस्तुत करना चाहूंगा
हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दीजैसे प्रश्नवाचक चिन्ह के नीचे लगी बिन्दी


पंकुल

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः कपड़ों से फर्क पड़ता है

कुछ समय पहले ही बात है। दास जी अपने सरकारी बंगले के अंतःपुर में विश्राम कर रहे थे। आस-पास चमचों की चटर-पटर रोजाना की भांति ही माहौल को चमचामय बनाने में सफल हो रही थी। प्राचीन समय के इद्रलोक की भांति ही अप्सराएं भी वहां मौजूद थीं। सोमरस का पान करते हुए दास जी इस अति सम्मोहनशाली माहौल को देखकर मंद-मंद मुस्करा रहे थे।
इसी दौरान एक चमचे के मन में कोई शंका पैदा हुई। शंका हो और दासजी उसका समाधान न करें ये असंभव बात है। चमचे ने किंचिंत सोचनीय मुद्रा बनाते हुए प्रश्न किया दास जी आखिर सभी नेता सफेद कपड़े ही क्यों पहनते हैं। प्रश्न बहुत ही गंभीर। चारों ओर सन्नाटा सा पसर गया। सभी चमचे एकटक दास जी के मुंह की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगे। जैसे वहां से वेदवाक्य अब फूटे कि अब फूटे। दास जी की मुद्रा बिल्कुल ऐसे जैसे कभी सूत जी की हुआ करती थी। प्राचीन काल में लोग सूत जी से इसी तरह के प्रश्न किया करते थे।
कुछ क्षण सोचने की मुद्रा के बाद दास जी ने अपना मुंह खोला। बोले चमचे तुमने बहुत ही नेक प्रश्न दागा है। मैं इस प्रश्न का उत्तर जरूर दूंगा। सुनो सफेद कपड़े पहनने के तीन मुख्य कारण हैं।
(1) हमारे समाज में प्राचीन काल से ही कपड़ों के रंग और ढंग का विशेष महत्व रहा है। राजा-महाराजा भी समय और परिस्थितियों के अनुकूल ही वस्त्र धारण करते थे। जब कभी शोक का माहौल होता था सफेद वस्त्र पहने जाते थे। आज जनता गरीब है और हमें हर समय शोक के माहौल में डूबा रहने पड़ता है इसलिए सफेद वस्त्र पहने जाते हैं।
(2)सफेद वस्त्र शांति का प्रतीक है। हमें हमेशा शांत रहकर ही दूसरों के घर में अशांति फैलाना पड़ता है। इसलिए सफेद रंग से बेहतर दूसरा रंग नहीं होता।
(3) सफेद रंग पर कभी भी कोई भी रंग आसानी से चढ़ सकता है। हमारा कोई भरोसा नहीं, सुबह लाल रंग में बैठे हैं तो शाम को केसरिया ओढ़ लिया। कभी हरा रंग नजर आने लगता है तो कभी लाल-हरे-नीले से प्रेम हो जाता है। बालक यही कारण है जब चाहे जो रंग मिले, सफेद पर पर तुरंत चढ़ा लो।
चमचे ये जवाब सुनकर बेहद प्रसन्न हुए, और दास जी वहां से अंतर्ध्यान हो गये।
पंकुल

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

क्षणिकाएं

कशमकश
मैं हूं कि नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
सोचता हूं कुछ करूं
अपने अस्तित्व का आभास खुद करूं
दूसरों को करा दूं
सहारा बन सकूं किसी बेसहारा का
उतार फेंकूं ये लिबास पाखंडों के
पर क्या मैं यह कर सकूंगा
शायद हां या नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
मैं हूं कि नहीं।

पंकज कुलश्रेष्ठ

छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का इस धरती पर
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर
अब बच्चों की चीखों
अबलाओं के आंसू
और मजबूरों की आहों से
नहीं डोलता सिंहासन इंद्र का
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर
पहले द्रोपदी के अपमान का
बदला पांडवों ने लिया
अब तो पांडवों ने ही
द्रोपदी का चीरहरण किया
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर

पंकज कुलश्रेष्ठ

बुधवार, 10 सितंबर 2008

राधा रानी का मना जन्मदिन




















भादौं की मस्ती मथुरा में पिछले दिनों छायी रही। जन्माष्टमी के बाद आठ सितम्बर को मथुरा के मंदिरों में कृष्ण प्रिया राधा रानी का जन्मदिवस मनाया गया। राधा रानी की जन्म स्थली रावल में राधा जी का दुग्धाभिषेक हुआ। इससे एक दिन पहले सात सितम्बर को बरसाना के श्रीजी मंदिर में श्रद्धालुओं की मस्ती देखते ही बनती थी। यहां छह सितम्बर से ही लोगों ने नाच-गाकर अपनी आराध्य श्रीजी राधा रानी को प्रसन्न करने का प्रयास किया। आप इस आयोजन में शरीक नहीं हुए पर मैं कुछ फोटोग्राफ यहां लगा रहा हूं जिन्हें देखकर आप संतुष्ट हो सकते हैं।
अंतिम फोटो रावल के मंदिर में राधा रानी के दुग्धाभिषेक का है।शेष चित्र श्रीजी मंदिर बरसाना और बरसाना में उमड़ी भीड़ और यहां की मस्ती के हैं।
पंकज कुलश्रेष्ठ

मंगलवार, 9 सितंबर 2008

अंतर

सावन और भादों, बरसात का मौसम। बड़े शहरों की तो नहीं मालूम लेकिन छोटे शहरों के लिए बारिश अक्सर मुसीबत लेकर ही आती है। हर बार बारिश और हर बार सड़कों पर भरने वाला पानी। इस पानी, यों कहें गंदे और नाले के पानी में बच्चों का कूदना और नहाना। सफाई की दृष्टि से इसे कतई उचित नहीं कहा जा सकता लेकिन.....
अंतर
ये झोपड़ियों में रहने वाले,
बरसाती नालों में नहाने वाले लोग,
हमसे तो कहीं बेहतर हैं।
पानी में बंद होने वाली गाड़ियों
नाले में डगमग कर गिरने वाले
बूढ़े और बच्चों को
ये खुद
बाहर निकाल लाते हैं
गंदे पानी में ये मन का मैल
पूरी तरह धो डालते हैं
पर एक हम हैं
कोठियों और बंगलों में रहने वाले
गंगा के साफ पानी में नहाकर
अपाहिज और लाचारों से बचते हुए
मंदिर का रास्ता ढूंढते हैं
कहीं वो हमसे छू न जाएं
हम साफ पानी में नहाकर भी
मन साफ नहीं कर पाते हैं
हमसे तो अच्छे वो हैं
जो गंदे पानी में नहाते हैं।
पंकज कुलश्रेष्ठ

रविवार, 7 सितंबर 2008

मैं कुत्ता (2)... वफादारी तुमने छीन ली इंसान


हम कुत्तों को वफादारी विरासत में मिली थी। मैं सतयुग से देख रहा हूं, कुत्ते आदमी तो आदमी, बिल्ली-बिलौटों तक के प्रति वफादार रहे हैं। जिस घर में कुत्ते-बिल्ली साथ-साथ रहते हैं वहां हमारी वफा का आंकलन किया जा सकता है। पहले तुम इंसानों ने भी हमसे वफादारी सीखी थी। अब हालात बिगड़ते जा रहे हैं। आप लोगों की तरह अब कुत्तों का भी भरोसा करना मुश्किल होता है। कई बार ऐसा होता है जब कुत्ता आपके पांव चाटते-चाटते ही पैर में काट लेता है। आप उसे रोटी खिलायें और वो गुर्रा कर भाग जाए। ऐसा भी नामुमिकन नहीं कि वही कुत्ता आपके घर के बाहर भौंकना ही छोड़ दे। और तो और ये भी हो सकता है कि चोर उचक्कों को भौंक-भौंक कर आपके घर के अंदर ही छोड़ आये। इसे हमारे यहां इंसानी फितरत कहते हैं। आप लोगों में तो पता नहीं कब कौन आपके पीछे चलते-चलते तंगड़ी मारकर आगे निकल जाए। कई पार्टियों के छुटभैये नेता इसी फितरत के चलते आगे बढ़ते हैं। जो लोग एक-दूसरे की गलबहियां कियें हों उनकी गारंटी नहीं कल भी साथ-साथ ही बैठेंगे।
आप लोगों की आदत होती है जिसकी थाली में खाओ उसी में छेद कर दो। कोई भला मानुस आपको घर पर खाने के लिये बुलाये और आप खाना-खाने के बाद इंकम टैक्स वालों को और भिजवा दो। नेताओं को चंदा देना हो तो अपने पड़ोसी का पता बता दो। हां जब नेताओं से काम निकलने हों तो उन्हें अपने घर पर बुलाकर तलुवे चाटो। एरिये का थानेदार जब तक पोस्टिंग पर रहे, उसकी जी हजूरी करो। जब थानेदार का तबादला हो जाए तो अपना मोबाइल बंद कर लो । बास का फोन आये तो तुरंत हलो करके मिमियाने लगो। जब किसी फोकटिया का फोन हो तो रांग नम्बर कहकर फोन रख दो।हमारे यहां भी ऐसा होने लगा है। जब पड़ोसी मोहल्ले का दमदार कुत्ता आता है तो सभी दुम हिलाते-हिलाते दूर-दूर चलते हैं। जब अपने मोहल्ले का मरियल कुत्ता भी आता है तो उसे फफेड़ डालते हैं। नेताजी चुनाव हार जाएं तो कोई पूछने वाला भी नहीं बचता। नेताजी मंत्री बन गये तो अड़ोसी-पड़ोसी के चमचे भी रिरियाने लगते हैं।
हम कुत्तों की तरह कुछ इंसान भी फालतू होते हैं। इन लोगों के पास भी सिर्फ अड़ोसी-पड़ोसी की घर में सूंघने के सिबाय कुछ काम नहीं। किसकी कितनी आमदनी है, किसके कितने बच्चे हैं और कौन क्या कर रहा है यह काम आप लोग करते हो। हमारे यहां आप किसी भी कुत्ते से पूछ सकते हैं किसके घर क्या बना है। जैसे आपको जो कमीशन दे दे उसका पता अपने बाप को भी नहीं बताते, ऐसे ही जो हमें रोटी देता है उसका घर नहीं बताया जाता।
जिसके दरवाजे पर आपको कमीशन मिलने की संभावना हो। जिसका नाम लेकर ही आपका काम थाने-चौकी में हो जाए आप उसी नेता के घर के आस-पास मंडराते हो। सुबह हो या शाम, नेताजी को खुश रखने का काम करते हो। जिसकी गाड़ी में दो -चार घंटे बैठने के एवज में दो पैग मिल जाए, थोड़ी सी बोटी खाने को मिल जाए वहीं पर भीड़ भी नजर आती है। अरे आप ही लोग कहते हो, जहां गुड़ होगा वहां चींटे तो आयेंगे ही। हमें भी जहां दो चुपड़ी रोटी मिल जाएं वहीं दुम हिलाते हैं। जिसके यहां ज्यादा अच्छी रोटी मिलेगी वहीं पर खड़े हो जाएंगे, बिल्कुल आपकी तरह। जो नेता ज्यादा अच्छा खिलायेगा उसके यहां खिसक जाएंगे। (क्रमशः)
पंकुल

शनिवार, 6 सितंबर 2008

बहुत निकले अरमां पर अभी तो कम निकले

भैया गयी भैंस पानी में। घबड़ाओं नहीं अभी जाने वाली है। हाथ का जो होना है सो तो होगा ही पर हाथ के इन चश्मेबद्दूरों का क्या होगा। बेचारे बड़े अरमान से साइकिल की घंटी बजा रहे थे। एक बेचारे, संगठन के मारे। बार-बार हारे। अपनी धर्मपत्नी को लखनऊ पहुंचाने की कोशिश भी की पर साइकिल ने बेचारे का हाथ कुचल दिया। सोचा अब तो कम से कम साफ्ट लायन पिघल जाएंगे। इसीलिये साइकिल के कसीदे कस रहे थे। मैडम तक से जुगाड़ लगवा ली। तरन्नुम में गा रहे थे, ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे। नेताजी को उम्मीद थी कि कम से कम उनका चांस तो लगेगा ही। पिछले बीस साल से पार्टी को वहां से यहां तक लाने में इनका भी कम योगदान नहीं है। जब जी चाहा, प्रदेश के आका बन गये। लम्बी से अचकन पहनी और घूम। अब अगर उनके कहने से कोई वोट नहीं डालता तो बेचारे का क्या कसूर है। अपनी तरफ से तो हमेशा कोशिश ही की।
पर लायन तो आखिर लायन है। शोले के गब्बर सिंह की याद दिला दी। मार दिया फिल्मी डायलाग। क्या सोच कर आये थे। सरदार सीट छोड़ देगा। तुम्हें सीट परोस कर अपने एम.पी. के हाथ में कटोरा थमायेगा। अरे किस-किस के लिये छोड़ेगा सीट। तुम्हारे गांव में तो सभी नेता हैं। हर कोई सीट के लिये जीभ लपसिया रहा है। हाथ की दुर्गति तो कर ली, अब आगे चांस मार रहे हैं। तमाम लम्बी अचकन वालों के अरमानों पर साफ्ट लायन ने पानी फेर दिया। भैया क्या बिगड़ जाता। दोस्ती की तो निभाते। अरे अपनी खातिर न सही हमारी खातिर ही निभाते।
पर साफ्ट लायन जानता है। जो औकात चचे ने हाथ की बना दी है उसकी साइकिल टनटना कर चल सकती है। मजे से चल सकती है। लायन ने इसीलिये रिंग मास्टर को कुछ नहीं कहा। रिंग मास्टर जब तक कब्जे में है तब तक लायन का पिंजड़ा दूर ही है। जितनी मंकी घुड़की से काम चल जाए उतना बढ़िया। एक कहावत याद आ रही है न मोकू और न तो कू ठौर। इस घुड़की से सबसे ज्यादा अपने छोटे चौधरी को दिलासा मिली है। अब रोजाना मंदिर में जाकर दीपक जलायेंगे। अरे चुनाव से भले ही दो महीने की जुगाड़ बने, बत्ती तो जले।
पंकुल