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शनिवार, 6 सितंबर 2008

बहुत निकले अरमां पर अभी तो कम निकले

भैया गयी भैंस पानी में। घबड़ाओं नहीं अभी जाने वाली है। हाथ का जो होना है सो तो होगा ही पर हाथ के इन चश्मेबद्दूरों का क्या होगा। बेचारे बड़े अरमान से साइकिल की घंटी बजा रहे थे। एक बेचारे, संगठन के मारे। बार-बार हारे। अपनी धर्मपत्नी को लखनऊ पहुंचाने की कोशिश भी की पर साइकिल ने बेचारे का हाथ कुचल दिया। सोचा अब तो कम से कम साफ्ट लायन पिघल जाएंगे। इसीलिये साइकिल के कसीदे कस रहे थे। मैडम तक से जुगाड़ लगवा ली। तरन्नुम में गा रहे थे, ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे। नेताजी को उम्मीद थी कि कम से कम उनका चांस तो लगेगा ही। पिछले बीस साल से पार्टी को वहां से यहां तक लाने में इनका भी कम योगदान नहीं है। जब जी चाहा, प्रदेश के आका बन गये। लम्बी से अचकन पहनी और घूम। अब अगर उनके कहने से कोई वोट नहीं डालता तो बेचारे का क्या कसूर है। अपनी तरफ से तो हमेशा कोशिश ही की।
पर लायन तो आखिर लायन है। शोले के गब्बर सिंह की याद दिला दी। मार दिया फिल्मी डायलाग। क्या सोच कर आये थे। सरदार सीट छोड़ देगा। तुम्हें सीट परोस कर अपने एम.पी. के हाथ में कटोरा थमायेगा। अरे किस-किस के लिये छोड़ेगा सीट। तुम्हारे गांव में तो सभी नेता हैं। हर कोई सीट के लिये जीभ लपसिया रहा है। हाथ की दुर्गति तो कर ली, अब आगे चांस मार रहे हैं। तमाम लम्बी अचकन वालों के अरमानों पर साफ्ट लायन ने पानी फेर दिया। भैया क्या बिगड़ जाता। दोस्ती की तो निभाते। अरे अपनी खातिर न सही हमारी खातिर ही निभाते।
पर साफ्ट लायन जानता है। जो औकात चचे ने हाथ की बना दी है उसकी साइकिल टनटना कर चल सकती है। मजे से चल सकती है। लायन ने इसीलिये रिंग मास्टर को कुछ नहीं कहा। रिंग मास्टर जब तक कब्जे में है तब तक लायन का पिंजड़ा दूर ही है। जितनी मंकी घुड़की से काम चल जाए उतना बढ़िया। एक कहावत याद आ रही है न मोकू और न तो कू ठौर। इस घुड़की से सबसे ज्यादा अपने छोटे चौधरी को दिलासा मिली है। अब रोजाना मंदिर में जाकर दीपक जलायेंगे। अरे चुनाव से भले ही दो महीने की जुगाड़ बने, बत्ती तो जले।
पंकुल

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

:) सही है.


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