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गुरुवार, 11 सितंबर 2008

क्षणिकाएं

कशमकश
मैं हूं कि नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
सोचता हूं कुछ करूं
अपने अस्तित्व का आभास खुद करूं
दूसरों को करा दूं
सहारा बन सकूं किसी बेसहारा का
उतार फेंकूं ये लिबास पाखंडों के
पर क्या मैं यह कर सकूंगा
शायद हां या नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
मैं हूं कि नहीं।

पंकज कुलश्रेष्ठ

छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का इस धरती पर
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर
अब बच्चों की चीखों
अबलाओं के आंसू
और मजबूरों की आहों से
नहीं डोलता सिंहासन इंद्र का
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर
पहले द्रोपदी के अपमान का
बदला पांडवों ने लिया
अब तो पांडवों ने ही
द्रोपदी का चीरहरण किया
छोड़ तो स्वप्न स्वर्ग का
इस धरती पर

पंकज कुलश्रेष्ठ

4 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुन्दर भाव,अति सुन्दर आप की यह क्षणिकाएं ,धन्यवाद

seema gupta ने कहा…

मैं हूं कि नहीं
जीवन इसी कशमकश में बीत जाएगा
सोचता हूं कुछ करूं
अपने अस्तित्व का आभास खुद करूं
"mind blowing, very nice to read"

Regards

Dr. Amar Jyoti ने कहा…

'पांडवों ने ही…' बहुत सार्थक, बहुत सुन्दर। एक विनम्र सुझाव है। यदि बहुत आवश्यक न हो तो शब्द-पुष्टिकरण हटा दें। अनावश्यक असुविधा होती है।