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बुधवार, 30 जुलाई 2008

चलो देश ने तरक्की तो की

बड़े भाई, अपन के हिन्दुस्तान ने तरक्की कर ली। घबराओ मत, तरक्की में अपना कोई योगदान नहीं है। हमने आज तक कुछ किया ही नहीं। सब कुछ पड़ोसी ही कर जाते हैं। अपने यहां के गरीबों को ही नहीं, गरीब की साइकिल को भी पड़ोसी ने हटवा दिया। अपन की दर्जन भर से ज्यादा सरकारे गरीबी हटाते-हटाते अमीर हो गयीं। अपने सैकड़ों नेता गरीब से अमीर होते गये। लेकिन गरीब की गरीबी नहीं गयी। छुटभैये नेता से लेकर सरकारी आदमी तक मोटरों में इतराने लगे पर वो वेचारा साइकिल पर चलता रहा। सुबह मजदूरी पर निकला तो साइकिल, शाम को घर लौटा तो साइकिल। साइकिल पर झोला लटकाया और चल दिये। जहां मन आया साइकिल रखी और मस्त। अब घूम कर दिखाओ। एक फोन घुमाया नहीं भागते नजर आओगे।
ये काम कर सकती थी कोई सरकाऱ। नहीं न। पड़ोसी का भला मानो, अब न कोई गरीब बचेगा और न गरीबी की निशानी । भैये, अपन हर भले काम को आगे बढ़ाने में पड़ोसी के साथ है। पहले हमारे यहां राम-राज का एक हिस्सा भी इन्हीं ने स्थापित किया। याद नहीं। बड़े भुलक्कड़ हो भाई। याद दिलाता हूं। एक जमाना था जब घर के बाहर रखी चीजें भी गायब हो जाती थीं। बस में सामान भूले नहीं कि पार। पर पड़ोसी का राम राज ऐसा आया कि लोगों को घंटो बाद भी सामान जहां का तहां नजर आने लगा। मजाल है आपका ब्रीफकेश कोई छू भी ले। ट्रांजिस्टर से लेकर लाइटर तक को कोई हाथ नहीं लगाता था।
मुझे मालूम है आप सोच रहे हो पड़ोसी ही सब करेगा तो हम क्या करेंगे। भाई मेरे, अपन के वर्दीवाले अब गरीबी हटाने में सहयोग करेंगे। कोई साइकिल खरीदेगा तो टैक्स देगा। कोई साइकिल को कहीं ले जाएगा तो टैक्स देगा। जब टैक्स दे-देकर थकेगा तभी तो साइकिल छोड़ेगा।
पंकुल

3 टिप्‍पणियां:

बालकिशन ने कहा…

अच्छा व्यंग्य लिखा आपने.
लिखते रहें.

Anil Kumar ने कहा…

इस व्यंग्य में सौ करोड़ लोगों की कुंठा छिपी है। लिखने की शैली पसंदीदा है - बिलकुल वहीं लगी जहां लगनी चाहिये थी।

हाशिया: अचरज हो रहा है अपने आप पर - अब कुंठा के लिये व्यंग्य लिखने पड़ते हैं, और उस कुंठाभरे व्यंग्य को पढ़कर टिप्पणी भी करता हूं।

Udan Tashtari ने कहा…

सटीक कटाक्ष..बहुत उम्दा.