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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

अप्रेरक प्रसंगः दास न रहे उदास

भ्रष्टाचार की मूर्ति दास जी नित्यकर्म के बाद जैसे ही चिलमन से बाहर आये चमचे दहाड़ मारते उनकी तरफ दौड़ पड़े। दास जी ने तनिक प्यार से पूछा, भैये चमचों क्या परेशानी है। दो-तीन-चार नम्बर के काम के धनी चमचे ने मुंह खोला, महाराज महंगाई मार रही है। दास जी ने चुटकी ली, काहे, दीवाली की मिठाई नहीं देने का इरादा है। कहां महंगाई है। सुबह से कुल्ला तक नहीं किया हूं और दो दर्जन से ज्यादा भक्त मिठाई दे गये हैं। एक-एक भक्त ने कितना खर्च किया मालूम है, कम से कम पच्चीस-तीस हजार। अरे भाई कोई हमारे लिए कपड़े लाया तो कोई अपनी चाची को खुश कर गया। तुम इतना महंगाई-महंगाई गिड़गिड़ा रहे हो, अभी चार ठौ ठेके नहीं दिलाये तुम्हें। घर में पैसा नहीं तो ठेके वापस कर दो।
लगता है तुम विपक्ष से जा मिले हो। कोई काम-बाम नहीं अफवाहें फैला रहे हो।
एक दूसरे चमचे ने हिम्मत जुटाई। बोला महाराज आपके लिए महंगाई नहीं है लेकिन अफसरों को भी हमई से दीवाली शुभ करनी है। ठेके मिलने के बाद सामान महंगा हो गया। रेत में रेत मिलाने की भी गुंजाइश नहीं बची है। सीमेंट का कट्टा दिखा कर काम चल रहा है। दास जी ने कहा, चमचे इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं है। सरकार किसकी, हमारी। जांच कौन करेगा हम। किसने कहा तुमसे काम करो। ठेका लो और कमीशन भेंट करो। तुम्हारी दीवाली में रौनक रहे और हमारे बच्चे टापते रहें, यह नाही होगा ना।
दास जी ने मुस्कराते हुए समाधान बताना शुरू किया तो चमचे उनके चारों ओर चुपचाप बैठ गये। दास ने भ्रष्ट वचन देना शुरू किया तो सन्नाटा पसर गया। दास जी ने गंभीर मुद्रा में कहा जिस तरह सूरज पूरब से निकलता है यह सत्य है उसी तरह तुम हमारी दीवाली मनवाओगे यह सत्य है। महंगाई बढ़ी कोई बात नहीं, सामान और कम डालो। और मुसीबत आये तो काम ही मत करो। हम हैं न झेलने को। तुम तो बस नोट छापो और हमें दो।
दीवाली साल में एक बार इसलिये आती है जिससे लोग अपने सुख (गिफ्ट) दूसरों को बांट सकें। मिठाई के नाम पर लीगल रिश्वत ले सकें। भगवान ने हमें सरकारी बनाया है। जो सरकारी होता है उसकी दीपावली तुम जैसे चमचे ही मनवाते हैं। भविष्य में ध्यान रखना हर अधिकारी को उसकी औकात के हिसाब से संतृप्त जरूर करना। तुम जैसे चमचों का जन्म ही हम जैसे लोगों के लिये हुआ है। यह कहकर दास जी कमरे में प्रवेश कर गये और चमचे उनकी दीपावली की तैयारी की वाह-वाह करते हुए उठ कर चले गये।
पंकुल

5 टिप्‍पणियां:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि बेतुकी बातों में ही ज्यादा तुक होती है ...तुक की बातें तो अपनी ही गंभीरता के बोझ से दम तोड़ देती है... मंहगाई और गुरूजी का सामंजस्य देखकर मन आनंदित हो गया...और कुछ कटु भी ...क्युकी सच ही में अब तो गुरुडम भी एक व्यापार ही हो गया है !! और गुरुजन...!!व्यापारियों के ब्रांड अम्बेसडर !!

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

राजनीित और नेताओं की मनोवृित्त सुधर जाए तो िफर देश का कल्याण है । बहुत अच्छा िलखा है आपने ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन आलेख..!!


आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

BrijmohanShrivastava ने कहा…

प्रिय पंकज /सदैव प्रसन्न रहो /व्यंग्य बहुत अच्छा लगा /रेत में रेत मिलाने जैसी बात से व्यंग्य ने बहुत गंभीरता धारण कर ली है /इसमें जो भाषा बदलने की कोशिश की गई है उसमें या तो पूरा लहजा ही वो लेते जैसे "सुबह से कुल्ला तक नहीं न किया हूँ "" ""अभी चार ठो ठेका नहीं दिलाया क्या ""/व्यंग्य अच्छा है समयानुकूल है

Manuj Mehta ने कहा…

bahut khoob janab

शुभम् करोति कल्याणं,
अरोग्यम धन: सम्पदा,
शत्रु बुद्धि विनाशाय,
दीपमज्योती नमोस्तुते!

शुभ दीपावली