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शनिवार, 16 अगस्त 2008

बेतुकीः न बहना नजर आयीं न भैया

अपने चचा पिछले चौबीस घंटे से बहन और भैया को खोजते रहे पर न तो बहन नजर आयी न भैया। अरे गलत मत समझना। चचा की बहन ने तो उन्हें राखी बांधी। अपुन की बहन ने भी राखी के साथ खूब घेबर खिलाया पर लखनऊ वाली बहन का भाई नहीं आय़ा। भूल गये भैया को। याद करो। थोड़ा और दिमाग को खुजलाओ। नहीं आया पकड़ में। चलो अपन ही बके देते हैं।
एक समय की बात है, कमल वाले लाल हुआ करते थे। जब हाथी वाली बहन पर मुसीबत का पहाड़ टूटा तो भाई पहुंच गये राखी बंधवाने। भाई धर्म निभाया और गिफ्ट में दे दी सरकार। तब बहन मुसीबत में थी। अब बहना को भाई की याद नहीं आयी। अभी क्या पिछले कई सालों से बहन को भाई की याद नहीं आ रही। भाई पर हर कोई चपत लगाने के मूड है और बहन का दिल पिघल ही नहीं रहा।
एक तरफ हाथ साइकिल पर बैठा और चल दिया। बहना है न तो चाचा चौधरी को भाव दिया न ही कमल भैया को। चाचा ने बहुत मगजपच्ची की लेकिन दाल नहीं गली। बहना, कमल भैया पर तो तरस खाओ। अपने बडे़ वाले लाल से तो कम्पटीशन मत करो। बेचारे कितनी सर्दियों से नजर गड़ाये बैठे हैं। रोजाना बेचारे गाना गाते हैं, ये कुर्सी बहुत अच्छी लगती है। लेकिन कुर्सी है कि मानती ही नहीं। सोचा था कुर्सी वाले कन्हैया को तंगड़ी लगाकर खुद मटरगश्ती करेंगे। पर क्या मालूम था अपनी ही बहना भांजी मार देगी। बहना है कि मानती ही नहीं। जो कुर्सी भैया को अच्छी लगी वही बहना को चाहिए। अपने चचा सोच रहे थे कि शायद भैया फिर बहना को कुर्सी दान कर दें। और बहना को दान के लिए रक्षा बंधन से बढ़िया दिन क्या हो सकता था। पर न बहना नजर आई न भैया। चलो..हम इंतजार करेंगे...
पंकुल

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