बड़े बे आबरू होकर तेरे कूचें से हम निकले, अब तो बस ये सोच रहें हैं कि इधर निकलें कि उधर निकलें। अपने पड़ोसी मुशर्रफ चचा की हालत कुछ ऐसी ही नजर आ रही है। बेचारे, अपने घर में बेगाने हो गये। ऐसे भी कर्म नहीं किये कि पड़ोसी दो रोटी के लिये भी पूछे। इसीलिये कहा गया है, हमेशा आस-पड़ोस में शराफत से काम लेना चाहिए।
अपने दास चाचा तो इतने शरीफ हैं कि भाभी के चले जाने पर महीनों उनका अड़ोस-पड़ोस में ही चाटने-चटोरने में बीत जाता है। लेकिन मियां मुशर्रफ हैं कि माने ही नहीं। अरे, हमारे घर (आगरा) आये तो बहुत समझाया। भैया मान जाओ। पड़ोसी से ज्यादा कभी कोई काम नहीं आता। पर नहीं। ऐंठ ऐसी जैसे अमृत पीकर आये थे। सोचा था जब तक जीयेंगे सरकार में जीयेंगे। पड़ोसी छोड़ो, घर में भी किसी को नहीं छोड़ा। अच्छे-अच्छे तीसमारखां मैदान छोड़कर भागते नजर आये। अब खुदकी हालत खस्ता है। वैसे मियां मुशर्रफ की फितरत ही कुछ अजीब सी है। 1998 में बेचारे नवाज ने उन्हें सेनाध्यक्ष बनाया और एक साल में उन्हें ही खिसका दिया।
मियां अगर ठीक-ठाक काम किये होते तो अपन दिल्ली वाली हवेली में ही एक कमरा रहने के लिये दे देते। चक सुबह-शाम खाते और रात में सो जाते। पर तुम्हारा क्या भरोसा कब अंगुली पकड़कर पौंचा पकड़ लो। तुम्हें चचा कहकर कमरा दें और तुम चौके में चले आओ। न बाबा न। इतना बड़ा रिस्क नहीं लिया जा सकता। हां, बड़े चचा तुम्हारा साथ दे सकते हैं। बहुत खुसर-फुसर करते थे दोनों। उनके यहां जाकर सफेद घर में बाहर वाला कमरा मियां तुम्हारे लिये मुफीद रहेगा। सेनाध्यक्ष रहे हो, सैनिक की तरह काम करो। हमारे घर में नहीं, आस-पास भी नहीं रहना। वहीं चले जाओ, मजे में रहोगे। जब तक बड़े चचा कि सरकार है, तुम्हारे भी आनंद रहेंगे।
एक छोटा सा सुझाव याद रखना चचा। अबकी पड़ोसियों से ठीक-ठाक व्यवहार रखना। अबकी नहीं बनी तो घर का कोना तो दूर, बाहर भी कोई नहीं फटकने देगा। अच्छा, अलविदा। भगवान करे, फिर कभी न मिलें।
पंकुल
pankul
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2 टिप्पणियां:
बहुत सही लिखा आपने.
सहमत हूँ.
सही है.
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